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________________ आपने लट्टू घुमाया है ? लट्टू के ऊपर डोरी (पतली रस्सी) लपेटते हैं फिर उसे ज़मीन पर फेंकते हैं । कुछ क्षण तो वह इधर-उधर डोलता है फिर धीरे से एक पॉइंट पर केन्द्रित होकर घूमता रहता है। मेरे जाने तो लट्टू का खेलना भी ध्यान है। जो कुछ देर तो इधर-उधर दौड़ता है फिर एक बिंदु पर आकर केन्द्रित हो जाता है। हम अपने ध्यान को लगभग पाँच मिनट नाभि-प्रदेश पर केन्द्रित करें। कुछ सुनना, सोचना या विचार नहीं करना है बल्कि निर्विचार होकर अपनी एकाग्रता को नाभि प्रदेश पर कायम करना है। इससे हमारे शरीर की प्राणचेतना स्वस्थ होगी, तंत्रिका तंत्र स्वस्थ होगा और एक बिंदु पर एकाग्र होने में सफलता मिलेगी। जब लगे कि मन एकाग्र हो गया है तब अपने ध्यान को हृदय पर कायम करें। अपनी जागरूकता, सजगता, सचेतनता, मानसिक शक्ति, बोध-दशा को अपनी छाती के मध्य क्षेत्र में स्थापित करें - इस भाव और धारणा के साथ कि मैं अपनी अन्तरात्मा में प्रवेश कर रहा हूँ, अन्तरात्मा से मिल रहा हूँ, अपने हृदय में अपने आत्म-प्रदेशों का संवेदन कर रहा हूँ । यहाँ भी कम-से-कम पाँच मिनट तक अपनी अन्तरात्मा का ध्यान धरें । हृदय पर ध्यान करने से हमारी भावचेतना का विकास होता है। हमारे भाव शुद्ध होंगे, भावनाएँ निर्मल और सकारात्मक ii। हम अपनी आत्मा के करीब होंगे। दिमाग से व्यक्ति विचार करता है और हृदय में भावना रखता है । भावना का संबंध ही दिल से है। हृदय पर ध्यान करते हुए एक ही भावना रखें कि मैं अपनी अन्तर्-आत्मा का ध्यान कर रहा हूँ, अपने-आप से मिल रहा हूँ । पाँच से दस मिनिट तक हृदय-क्षेत्र में गहराई बनाते रहें। इसके बाद पाँच से दस मिनट के लिए अपने दिमाग में प्रवेश करें और अपने ललाट प्रदेश पर, ज्योति बिंदु पर, आज्ञा चक्र पर स्वयं की सचेतना तथा बोध - दशा में गहराई बनाएँ । आज्ञा चक्र पर ध्यान करने से व्यक्ति का सिद्धों की चेतना से सम्पर्क होता है । ललाट प्रदेश पर ध्यान करने का आध्यात्मिक लाभ यह है कि हम प्रभु के दिव्य स्वरूप से जुड़ेंगे, सिद्ध चेतना के साथ सम्पर्क जोड़ने में सफल होंगे और भौतिक लाभ के रूप में ज्ञान-चेतना विकसित होगी । हमारे भीतर सम्यक् ज्ञान का उदय होगा, श्रद्धापूर्ण प्रज्ञा का जन्म होगा । पन्द्रह मिनट के ध्यान से हम अपनी काया से, देहभाव से, हर भाव से मुक्त हो जाएँ और पाँच मिनट तक अपने भीतर सजग, बोध - दशा बनाएँ । इस देह के प्रति जागरूक होकर हम अपने अस्तित्व में लीन हों । अब केवल बोध- दशा है, साक्षी - दशा है। अब मन शांत है, कहीं कोई भटकाव नहीं है। जिस एक बिंदु पर हमने 30 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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