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मैं साँसों की साँस में बंदे, मैं तो तेरे पास में ॥
मैं कोई बकरी या भेड़ में नहीं हूँ, जो तू मेरी कुर्बानी दे । ना ही नारियल में हूँ कि जाकर मंदिर में चढ़ा दे। मैं तो शहर के बाहर रहता हूँ, मेरा निवास, मेरा राजमहल तो मेरे ही भीतर है, मेरा बैकुंठ मेरे अंदर है, बस तू अपने आप से प्यार कर ।
स्थूल शरीर तो हमें अनुभव में आता है पर क्या इसकी जीवनी शक्ति अनुभव आती है ? अनुभव में नहीं आती फिर भी है और जब यह जीवनी शक्ति दिल से जुड़ती है तब हमारे अस्तित्व के मूल प्राण से, मूल चैतन्य-तत्त्व से हमारा साक्षात्कार करवाती है। हृदय में जाना सागर के किनारे जाने की तरह है कि हम स्वयं को केन्द्रित कर रहे हैं। अगर यहाँ अपनी स्थिरता बना ली, तो धीरे-धीरे काया बिखर जाएगी। अणु-अणु से जुड़कर बनी हुई इस काया का कण-कण बिखरा हुआ अनुभव होगा । प्रत्येक स्कन्ध, प्रत्येक अणु, प्रत्येक पुद्गल, प्रत्येक परमाणु घुलते हुए नज़र आएँगे अर्थात् पदार्थ, पर्याय, पंचभूतों से निर्मित इस शरीर में ही भगवान होंगे ।
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देखा जाए तो 'भगवान' शब्द में ही पंचभूत छिपे हुए हैं - भ - भूमि से जुड़ा है, ग - गगन, व - वायु, अ- अग्नि, न- नीर से जुड़ा है। यह पाँच तत्त्वों का सार भगवान के रूप में प्रकट हो जाता है । व्यक्तिगत रूप से मैं हृदय का प्रेमी हूँ, हृदय का दूत हूँ । दिल की बात करता हूँ, दिल से बात करता हूँ, दिल से, दिलवालों से बोलता हूँ | मैं पंडित या ज्ञानी नहीं हूँ इसलिए मेरी बातें भी दिलवाले ही समझ सकते हैं। तर्क और मन के बल पर मुझे कोई नहीं समझ सकता। मेरे इर्दगिर्द के लोग भी नहीं समझ सकते क्योंकि वे तर्क चाहते हैं (जिसे मैं कुतर्क कहता हूँ) । मैं दिल के ज्ञान से, भीतर के ज्ञान से बोलता हूँ और यह दुनिया चलती है मन व बुद्धि के ज्ञान से । इसलिए संतुलन नहीं हो पाता। मुझे लगता है मैं इस परिस्थिति के अनुकूल नहीं हूँ । यह दुनिया तर्क से चलती है और मैं प्रेम से चलता हूँ। यह दुनिया वैराग्य से और मैं प्रेम से चल रहा हूँ यही फ़र्क़ है। मैं मीरा का मित्र हूँ, उनका छोटा भाई हूँ। निश्चय ही मैंने महावीर के धर्म में संन्यास लिया लेकिन मैं कहना चाहता हूँ कि मेरा दिल, मेरी आत्मा महावीर की कम और मीरा की अधिक है। मैं योग और ध्यान भी मीरा बनकर ही करता हूँ। जब भी स्वयं को देखता हूँ 'वो' ही दिखाई देता है वरना मैं क्या चीज़ हूँ? आप सभी में भी प्रभु को ही देखता हूँ । उस निराकार ने अपने लोगों के रूप में नानाविध प्रकार से स्वयं को साकार किया है । आपसे प्रेम और अतिथि सत्कार का अर्थ है - प्रभु की पूजा । मैंने एक कहानी पढ़ी है गवारिया बाबा की
कहते हैं वृन्दावन में, रात के समय बाबा बैठे हुए थे कि दो-चार चोर आ गए
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