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________________ लौटा लें । प्रत्याहार को समझने से पहले चित्त के गुणों को समझें - चित्त में तीन गुण हैं - रजोगुण, तमोगुण और सतोगुण । तमोगुण - सदा दूसरों का विनाश करता है, तमोगुण यानी दूसरों को मिटा डालो, समाप्त कर दो। मेरी ही चले, जैसा मैं कहूँ वैसा ही हो, मेरा अहंभाव, मेरा अनुशासन चले, मेरा नाम, मेरा यश, मेरी प्रतिष्ठा - ये सब रजोगुण के परिणाम हैं। सतोगुण - धैर्य, शांति, क्षमा, करुणा, भाईचारा, प्रेम, दूसरों का सम्मान - ये सब चीज़ें सतोगुण के अन्तर्गत आती हैं। इन तीनों गुणों का हमारे भीतर संघर्ष चलता रहता है। कभी एक गुण हावी होता है, तो कभी दूसरा तो कभी तीसरा। निमित्तों के अनुसार ये गुण हम पर प्रभाव डालते हैं। जिसने अपने सतोगुणों का विकास कर लिया है वह विपरीत वातावरण बन जाने पर भी धैर्य, शांति, संयम और स्वयं पर अंकुश रखेगा। सतोगुण का विकास न होने पर उग्रताएँ और आतंक अपने पैर पसारेंगे। पहले चरण में ही हम अपने चित्त की स्थिति का निरीक्षण कर लें । चित्त हमेशा सक्रिय गतिशील रहता है। दिन-रात इसकी उधेड़बुन चलती रहती है। दिन में विचारों के रूप में, रात में सपनों के रूप में यह सतत क्रियाशील रहता है, सगतिक । इसकी गति सूर्य-किरण से भी कई गुना अधिक है। सूर्य की किरण को तो पृथ्वी पर पहुँचने में कुछ सेकंड का समय लगता है पर मन ! यह तो सोचे और वहाँ पहुँचे । उसके भीतर बस कामना जगनी चाहिए। इसकी पहुँच तीव्रतम है। मन की चंचलता दूसरा लक्षण है, तीसरा - मन सदा परिवर्तनशील रहता है, बदलता रहता है । एक जैसे भाव नहीं रहते कभी यह, कभी वह बन जाता है । चित्त और मन बदलता है, इसलिए व्यक्ति के विचार भी बदलते हैं । कोई भी विचार स्थायी नहीं होता। वैसे भी दुनिया में कुछ शाश्वत नहीं है - न मन, न तन, न विचार, न व्यवस्था, न प्रकृति, न दुनिया - सब बदलता रहता है। इसीलिए ज्ञानी महापुरुष कहते हैं - अनित्यता पर चिंतन करो, This too will pass सब बीत जाएगा। जब वह बीत गया तो यह भी कहाँ रहने वाला है । इसलिए जानो कि यहाँ पर सब कुछ परिवर्तनशील है । जिसने भी परिवर्तनशीलता के सिद्धांत को समझ लिया वह कभी भी मोहग्रस्त और आसक्त नहीं होगा क्योंकि वह जान लेगा कि सभी नदी - नाव संयोग हैं और यह संयोग कभी भी टूट सकता है। पतंग और धागा साथ है लेकिन फिर भी नहीं जानते कि पतंग कब तक उड़ पाएगी और कब कट जाएगी । कोई छोटा-सा निमित्त हमारे दस वर्ष के संबंधों पर, मेहनत पर पानी फेर | 141 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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