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________________ खुलेंगी ही। गंध आए और नाक प्रभावित न हो यह कैसे हो सकता है। वस्तु जिह्वा पर आए तो उसका स्वाद खारा, खट्टा मीठा, कटु तीखा तो आएगा ही। हम स्वाद से मुक्त नहीं हो सकते क्योंकि यह तो जिह्वा का धर्म है । हम इन्द्रियों के स्वभाव को त्याग नहीं सकते। केवल इतना कर सकते हैं कि रस, रूप, शब्द, गंध, स्पर्श से जो राग-द्वेष पैदा होते हैं वे उत्पन्न न हों और हम समता - भाव से जिएँ । रास्ते से जा रहे हों और गंदगी नज़र आ जाए तो नाक-भौंह न सिकोड़ें और ख़ूबसूरत फूलों की सुगंध पर वाह-वाह न करें। सहज रहें, समता भाव रखें। हमारे चित्त में समता रहनी चाहिए तभी हम इन्द्रियों और चित्त के बीच में जो प्रभाव बार-बार पैदा होता है, जो राग-द्वेष के निमित्त हमारे सामने बार-बार उपस्थित होते रहते हैं, जो हमारे भीतर की स्थिति को कभी विकृत, कभी शांत, कभी उद्विग्न करते रहते हैं । तब हम प्रत्याहार पर पहुँचकर समता को साध सकते हैं । मैं प्राय: कहा करता हूँ कि हमें अपने घर के लगभग हर कमरे में यह पंक्ति लिखवा देनी चाहिए कि - 'हे जीव ! अब तू शांत रह ।' बहुत उद्वेलन, उग्रता, अशांति हो चुकी, अब शांत हो जा। यह प्रत्याहार को साधने का सरल, सहज तरीक़ा है । इसे पढ़कर संकल्प उठेगा कि अब आप गुस्सा नहीं करेंगे। यह संकल्प भी प्रत्याहार है । अब हम अपनी सीमा में लौट आए । सीताजी ने लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन किया, परिणाम भुगतना पड़ा । प्रत्याहार की प्रेरणा इसीलिए है कि पुरुष कभी मृग- -मरीचिका में न उलझे, नहीं तो राम की तरह पछताना पड़ेगा और नारी कभी भी लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन न करे अन्यथा उसे रावण जैसे आततायी के चंगुल में फँसना पड़ सकता है। ये सब बातें हमें प्रत्याहार की प्रेरणा देती हैं कि लौट आओ अपनी-अपनी सीमा में, अपनी-अपनी मर्यादा में । हे चित्त, तुम भी अपनी सीमा में रहो, अतिक्रमण न करो । आक्रमण और अतिक्रमण की बजाय हम प्रतिक्रमण करें अर्थात् अपने-आप में लौट आएँ । महर्षि पतंजलि कहते हैं - इन्द्रियों का विषयों से विमुख होकर चित्त के स्वरूप में अन्तर्मुख होने का नाम प्रत्याहार है अर्थात् हमारी इन्द्रियाँ जो बाहर की ओर विषयों से जुड़ी हैं इनसे विमुख होकर, इनसे अनासक्त होकर चित्त के स्वरूप में यानी अपने भीतर लौट आना ही प्रत्याहार है । अभी आत्मा और परमात्मा की बात नहीं हो रही है, अभी तो हमारे चित्त की, मन की बात ही चल रही है। हमारी इन्द्रियाँ जो बाहर भटक रही थीं, बाहर में रुचि ले रही थीं, अब जबकि प्राणायाम सध गया है, इन गतिविधियों से अपने-आप में लौटा लाएँ । ठीक उसी तरह जैसे सूरज साँझ पड़ने पर अपनी किरणों को खुद में लौटा लेता है हम भी अपने-आप को अपने में 140 | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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