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________________ मिनट का नृत्य आपके भीतर का सारा प्रमाद दूर कर देगा। शरीर का रासायनिक समन्वय हमारे अनुकूल हो जाएगा। इससे आपको ऊर्जा मिलेगी । एकलयता सधेगी । नृत्य ऐसा करें जैसा चैतन्य महाप्रभु करते थे, मीराबाई करती थी । हमसे हमारा 'मैं' खो जाए और 'वह' साकार हो जाए । प्रकृति नृत्य कर रही है, फूल नृत्य कर रहे हैं, झरने और हवाएँ नृत्य कर रही हैं। नृत्य तो वृद्धावस्था में भी प्राण फूँक देता है। जब तक हम स्वयं को क्रियाशील रखेंगे, जीवन में क्रियाशीलता रखेंगे तब तक प्लस परिणाम मिलते रहेंगे। योग प्लस (+) है, प्रमाद माइनस है । हैप्पीनेस प्लस है, सॉरो माईनस ( - ) है | हैप्पीनेस में से सॉरो को माइनस करो। जीवन में से दुःख, रोग, शोक, चिंता, तनाव को घटा दो, माइनस कर दो। हम प्रसन्न, आनन्दभाव, नृत्य, योग, प्राणायाम को अपने जीवन में +++ प्लस करें। प्लस ही नहीं, मल्टीप्लाय करें । 2 + 2 = 4 नहीं, 3 × 3 = 9 ! गुणों को मल्टीप्लाय करें । कल तक जो गुण थे उन्हें और कैसे मल्टीप्लाय करें यह विचार करें । इसलिए जब तक जिओ योगी बन कर जिओ । फिर चाहे कर्मयोगी हों या भक्त योगी, अनासक्त योगी हों या ज्ञानयोगी अथवा ध्यानयोगी, पर जिओ योगी बनकर । श्रेष्ठ जीवन की यही बुनियाद है, ताक़त है । 1 चार घंटे पद्मासन लगाकर बैठने वाला ही योगी नहीं है, प्रेम से मनोयोग पूर्वक दो घंटे खाना बनाने वाली महिला भी योगी ही है। योग बहुआयामी है । योग में मेरी निष्ठा है । मैं प्रत्येक दिन को योगपूर्वक जीता हूँ । प्रत्येक घंटे को योग की आभा से परिपूर्ण करता हूँ । अपनी हर साँस और पलक झपकने को भी योग से जोड़ने का बोध रखता हूँ। हम सजग रहें कि हम योगी बनकर जिएँ, हमें होश रहे, बोध रहे, हम किसी अज्ञानी की तरह न जिएँ, वरन् प्रभु कृपा से हमें जितना भी बोध प्राप्त है उसके प्रकाश में प्रत्येक कर्म और कार्य करें। I जीवन में कुछ भी अच्छा या बुरा नहीं होता। अज्ञानपूर्वक किया गया कार्य ही बुरा होता है और ज्ञानपूर्वक किया गया कार्य ही अच्छा होता है । क्रोध और भोग, माया और मोह जो सदा ही संतों द्वारा आलोच्य और निंदनीय कहे गए हैं, पूरी तरह निंदनीय नहीं हैं। अगर ये पूरी तरह निंदनीय होते तो प्रकृति इन्हें व्यर्थ में जन्म ही क्यों देती । हर चीज की प्रासंगिकता है, हर चीज की उपयोगिता है । हाँ, इनमें से किसी भी चीज की 'अति' घातक है और आत्मघातक भी । अति हमेशा ख़तरनाक होती है । ज़रूरत है ज्ञानपूर्वक जीने की। अगर आपने क्रोध भी बोधपूर्वक किया तो वह क्रोध नहीं होगा, जीवन का अनुशासन हो सकता है। क्रोध तभी क्रोध होता है जब वह तैश Jain Education International For Personal & Private Use Only | 15 www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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