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________________ नियोजित करना लगाना। अर्थात् ऐसे संकल्प करना जो हमें बाहर से हटाकर भीतर की ओर ले जाएँ। पतंजलि हों या महावीर और बुद्ध सभी यम-नियम की पालना पर विशेष जोर देते हैं। महावीर द्वारा अपनाए जाने वाले छह आवश्यक कृत्य और पाँच व्रत ये वास्तव में यम और नियम ही हैं। आसन अपनी काया को मज़बूत बनाने के आधार, ऐसे व्यायाम जो हमारे पंचभूतों को प्रसन्न और जीवन के लिए अनुकूल और सकारात्मक बनाने में सहायक हों। प्राणायाम शरीर को जीवनी-शक्ति प्रदान करता है। हमें अपने जीवन के उद्देश्य को समझना चाहिए। हमें जानना चाहिए कि हमारा जन्म क्यों हुआ है? क्या गाजर-मूली की तरह हम जनम गए हैं? या कुछ विशिष्ट उद्देश्य है? हम अपना जीवन यूँ ही क्यों समाप्त कर देते हैं? हमें चिंतन व मनन करना चाहिए कि प्रभु ने हमें क्यों जन्म दिया है? जो भी अपने जन्म के संबंध में मनन व विचार करेगा तो उसके सामने एक लक्ष्य उभरेगा, जीने की सार्थकता दिखाई देगी। उसे लगेगा कि वह मरने के लिए नहीं जी रहा, बल्कि जीवन को धन्य करने के लिए जी रहा है। उद्देश्यहीन, लक्ष्यहीन जीवन सौ, दस या एक साल जीना तो क्या, एक दिन भी जीना बेकार है। लक्ष्यहीन जीवन भी कोई जीवन है ! इसलिए मत जिओ कि मरे नहीं हैं। यह जीवन तो मरने से भी बुरा है। ऐसे लोगों के जीवन में कोई स्वप्न नहीं होते, न जीने का ज़ज्बा होता है, न हिम्मत, न उन्नत कल्पनाएँ होती हैं। योग हो या यम-नियम-प्राणायाम - ये सभी हमें जीवन का उत्साह देते हैं, जीवन में ऊर्जा का संचार करते हैं, जीवन को सार्थक और धन्य करने के आयाम देते हैं। अब हम अपने कदम अंतरंग साधना के लिए आगे बढ़ा रहे हैं तो जानें कि योग का पाँचवाँ अंग प्रत्याहार है। प्रत्याहार देहरी का दीपक है। हालांकि योगसूत्र में प्रत्याहार को भी बहिरंग साधन ही माना गया है, पर मेरे लिए यह वह चिराग है जो भीतर भी अपना प्रभाव देता है और बाहर भी अपना प्रभाव दिखाता है। पतंजलि कहते हैं - स्वविषयात् संप्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इव इन्द्रियाणां प्रत्याहारः। इन्द्रियों का विषयों से विमुख होकर चित्त के स्वरूप में अन्तर्मुख होना प्रत्याहार है। प्रत्याहार अर्थात् लौटना, पीछे लौटना, विषयों से विमुख होकर अपने-आप में लौटना – यह प्रत्याहार है। प्रति + आहार = प्रत्याहार। महर्षि पतंजलि ने जिसे प्रत्याहार कहा महावीर उसे प्रतिक्रमण कहते हैं। इसमें भी दो शब्द हैं - प्रति एवं क्रमण ।क्रमण का अर्थ है - चलना और प्रति का अर्थ है - पीछे की ओर । अर्थात् वापस लौट आना। जहाँ-जहाँ हमारा चित्त आसक्त हो गया है, हमारी इन्द्रियाँ बहिर्मुख हो गई हैं वहाँ-वहाँ से अपनी इन्द्रियों और चित्त को वापस अपनी चेतना में, 138/ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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