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________________ अपितु यह तन ईश्वर के रहने का घर बन जाए, मंदिर बन जाए। मेरे लिए तो मेरा शरीर ही मेरा मंदिर है और जितना पवित्र दृष्टिकोण किसी धर्म-स्थल के लिए रखता हूँ उतने ही पवित्र भाव से इस देह को भी देखता हूँ। देह के साथ सकारात्मक व्यवहार करना चाहिए, इसका आदर, सम्मान और पवित्रता बनाए रखनी चाहिए क्योंकि शरीर प्रभु के रहने का घर है। इसीलिए पतंजलि सर्वप्रथम शरीर को ही दुरुस्त करने की बात कहते हैं। आज हम योग के तीसरे चरण में प्रविष्ट हो रहे हैं जिसका मूल संबंध शरीर से है। पतंजलि कहते हैं - स्थिर सुखम् आसनम् । जो स्थिर व सुखदायी हो वह आसन है। आसन अर्थात् बैठक या बैठना। साधक के लिए ज़रूरी है कि वह ऐसा आसन लगाकर बैठे जिसमें स्थिरता हो और वह सुखदायी हो। अर्थात् अधिक समय तक जिसमें सुखपूर्वक बैठ सकें। ध्यान करने के लिए सुखदायी हो, कष्टदायी न हो, वह उस आसन में लगातार लम्बी बैठक लगा सके, यही आसन उसके लिए कल्याणकारी है। ध्यान में यदि देह-संचालन करेंगे, हाथ-पाँव हिलाएँगे, कमर झुकाकर बैठ जाएँगे तो आलस आ जाएगा तब ध्यान निद्रावस्था में प्रवेश होगा। आसन में व्यक्ति शरीर मन, वाणी की प्रवृत्तियों को स्थिर करता है और ध्यान के लिए यही पहली अनिवार्यता है। समाधि का प्रथम प्रवेश द्वार यही है कि व्यक्ति ने अपने मन, वाणी और काया तीनों को सहज और स्थिर कर लिया है।आसन योग का तीसरा चरण है। आसनों की चर्चा में यह जान लेना चाहिए कि जिस स्थिति में हम बैठते हैं स्थिरतापूर्वक वह आसन है। ध्यान के लिए सहज व सुखद आसन हैं - सुखासन, पद्मासन, अर्ध पद्मासन,स्वस्तिक आसन, वज्रासन,गोमुख आसन । यूँ तो बहुत से आसन हैं लेकिन जिस मुद्रा में आधा घंटे से लेकर डेढ़-दो घंटे तक आराम से बैठा जा सके वही आसन उपयुक्त है। लेकिन यह स्थिति कैसे पाई जा सके इसके लिए योगाभ्यास, योगासन अतीत के महानुभावों ने हमें बताये हैं। जिसमें सूर्य नमस्कार के रूप में बारह मुद्राएँ विश्व-प्रसिद्ध हैं। इसके अतिरिक्त लेटकर किए जाने वाले आसन, बैठकर किए जाने वाले आसन, खड़े होकर किए जाने वाले आसन इतने आसन हैं कि हमें देखना होगा कि कौन-कौन से आसन हमारे शरीर के अनुकूल बन पड़ते हैं। याद रहे, जीवन में चाहे धर्म हो या तपस्या या योग अपने वर्तमान आरोग्य, अपने शरीर के वर्तमान बल, अपनी श्रद्धा, देश, क्षेत्र, काल, भाव सभी परिस्थितियों के जितना जो अनुकूल हो उसके अनुरूप ही हमें योग, तपस्या, धर्म या अन्य किसी भी कार्य को अपनाना चाहिए। 118/ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003887
Book TitleYoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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