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________________ अपेक्षा। सच में, अगर महावीर का लांछन-चिह्न सिंह है, तो महावीर सिंहवत पराक्रमी थे। ___धर्म आज इसलिए मुक्तिदायी या साधनानिष्ठ न रहा क्योंकि हमारी भीरुता ने धर्म के प्रति आवश्यक पराक्रम को नष्टप्रायः कर दिया है। मुक्ति कभी गुनगुने पानी से नहीं मिलती, इसके लिए खौलना पड़ता है, भाप बनने के लिए तैयार होना होता है। महावीर का मार्ग मूलतः साधना का मार्ग है। साधना में समर्पण तो चाहिए ही, उससे पूर्व दृढ़ संकल्प की भी आवश्यकता है। यह तो तलहटी से शिखर की यात्रा है। चौबीसों तीर्थंकरों का क्षत्रिय होना महज संयोग नहीं हो सकता। अहिंसक होने के लिए पराक्रमी होना जरूरी है। ताकि हम अहिंसा और करुणा के नाम पर कायरता की बजाय वीरत्व के मालिक बन सकें। हम वही त्याग सकते हैं जो हमारे पास हो। ऋषभ, नेमि, महावीर, बुद्ध सभी क्षत्रिय राजघरानों में पैदा हुए। युद्ध-कलाओं को सीखते हुए उनका पालन-पोषण हुआ। हिंसा, युद्ध, विजय के अतिरिक्त वे कुछ जानते ही न थे। उसी हिंसा के प्रगाढ़ अनुभव से अहिंसा का जन्म हुआ। हिंसा के वातावरण में जीकर-रहकर पाया कि हिंसा त्याज्य है और तब अहिंसा का जन्म हुआ। भोगों में जीकर पाया कि भोग त्याज्य है, तब जीवन में योग का जन्म हुआ। महावीर की अहिंसा तो सिंह के पराक्रम से आई और पराक्रम तो क्षत्रिय से ही सीखना पड़े, सिंह से सीखना पड़े। हिंसा से भी बड़ा पराक्रम है अहिंसा। इसलिए महावीर की अहिंसा ने व्यक्ति को कायरपन नहीं दिया। महावीर की अहिंसा ने सहनशीलता, प्रेम और करुणा प्रदान की है। अहिंसा का अर्थ अनन्त प्रेम, अनन्त करुणा-इन सबका गहरा अर्थ होता है कष्ट सहन की अनन्त क्षमता। __महावीर की अहिंसा धर्म का ज्वलंत रूप है। महावीर नहीं कहते कि मुझे दुःख मत पहुँचाओ या मुझे मत मारो। मारना है तो मारो पर यह तुम्हारी नासमझी है। क्योंकि मैंने यह अनुभव किया है कि मारने में कुछ सार नहीं है, इसलिए मैं किसी को नहीं मारता हूँ। उनकी नजरों में अपने को असुरक्षा में छोड़ देने से बड़ा कोई पराक्रम नहीं है, जो स्वयं को सहजता से प्रकृति के हवाले कर देता है, प्रकृति स्वतः उसकी सुरक्षा के इंतजाम करती है। लेकिन आज हम हरेक को सुरक्षा के दायरे में घिरा देखते हैं। नेता भी, धर्म, आखिर क्या है ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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