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________________ I सिपाही भी, साधु या श्रावक सभी अन्योन्याश्रित हो गए हैं । कभी-कभी तो धनिकों को साधुओं पर अपनी व्यवस्थाएँ और व्याख्याएँ थोपते हुए भी पाया जाता है और जो संत इनसे इंकार करता है, उसके प्रति निंदाएँ प्रचारित की जाती हैं । अरे, संत को तो साधनारत रहने दो। महावीर कहते हैं कि साधक सिंह की तरह पराक्रमी बने कि उस पर किसी का निर्णय न थोपा जा सके। कोई ऐसा दुस्साहस करे तो उसके मुँह से यही निकले, ‘अपने निर्णय तुम रखो, मेरे लिए दुनिया के हजार रास्ते हैं ।' अगर महावीर को गुरुकुल की व्यवस्थाओं में बाँधने की कोशिश की जाती है तो वे वहाँ नहीं ठहरते। जो व्यवस्थाओं के बंधन से मुक्त होकर आया है, वह मुक्त ही बना रहे। साधक या संत कभी अपनी वृत्तियों से, व्यवस्थाओं से और बाह्य विघ्नों से पराजित न हों। वह सिंह की तरह पराक्रमी रहकर स्वयं के क्षत्रियत्व को उपलब्ध कर मुक्ति प्राप्त करे । साधक के लिए दूसरा संदेश है कि उसे हाथी की तरह स्वाभिमानी होना चाहिए। उसमें किंचित भी अहंकार न हो । स्वाभिमान और अभिमान में फर्क . है । साधक स्वाभिमान में जिए पर अभिमान या अहंकार में नहीं । अभिमान जहाँ आत्म-गर्व का परिचायक है वहीं स्वाभिमान आत्म - गौरव का । गर्व का परित्याग हो पर सावधान ! गौरव बरकरार रहे। कुछ लोग व्यर्थ का अभिमान पालते हैं। होंगे जीरो पर स्वयं को हीरो मान बैठेंगे। अधिकांश लोग तो थोथा चना बाजे घना वाली आदत के होते हैं। मैं तो आकाश को देखता हूँ तो बोध जगता है एक दिन ऊपर जाना है फिर किसका अहंकार और जब जमीन को देखता हूँ तो लगता है सबकुछ इसी मिट्टी में मिल जाना है फिर किसका अहंकार। धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद, रूप-सौन्दर्य सभी कुछ नष्ट ही तो होता है । अगर गरीब हाथ पसारे जाता है तो अमीर की जाते समय कौनसी मुट्ठी बंद रहने वाली है । काले आदमी की मरने - जलने पर राख काली होती है तो गोरे की कौनसे गोरी होती है । राख के स्तर पर तो गोरा - काला दोनों एक ही रंग में ढलने हैं । इसलिए महावीर ने कहा, साधु हाथी जैसा स्वाभिमानी—मस्त प्रकृति का हो। हाथी किसी मान-अपमान की परवाह नहीं करता। एक बार किसी ने कबीर से कहा- लोग आपकी बहुत बातें करते हैं कि कभी आप मंदिर के विरोध में होते हैं, कभी मस्जिद का विरोध करते हो, साधना की सच्ची कसौटी Jain Education International For Personal & Private Use Only 91 www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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