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तोड़ पाता ! तपस्या करना भी आसान बात नहीं है, लेकिन भीतर के आत्मतत्त्व से साक्षात्कार उससे कहीं ज्यादा मुश्किल है। बाहर से भूखा रहना, जितना कठिन है, भीतर के कषायों को छोड़ना उससे भी अधिक दुष्कर है।
लोग कहते हैं सामान्य जीवन में जितना कषाय होता है, तपस्वी जीवन में उससे कहीं अधिक कषाय नजर आता है। इसीलिए मैं कहा करता हूँ कि तपस्या मात्र शरीर को सुखाने के लिए नहीं, मन के कषायों को शान्त करने के लिए की जानी चाहिए। ऐसी तपस्या किस काम की कि जिससे शरीर तो सूखता चला जाए और भीतर का मन और अधिक उद्वेलित होता चला जाए। वो तपस्या कैसे सार्थक हो पाएगी, यह विचारणीय बिन्दु है। ___लोग तीस-तीस दिन के उपवास कर लेते हैं मगर भीतर का क्रोध शान्त नहीं कर पाते। लोग मुझसे पूछते हैं, महाराज सा, मैंने मास-क्षमण किया लेकिन दो बार कच्चा पानी मुँह में चला गया, क्या प्रायश्चित करें ? भले आदमी, इसका प्रायश्चित तो दो उपवास करने से हो जाएगा, मगर एक दफा भी क्रोध कर लिया तो तुम्हारा पूरा मास-क्षमण निरर्थक गया समझो।
आज हमारा लक्ष्य केवल आठ, सोलह या तीस उपवास करने तक ही सीमित रह गया है। एक बात ध्यान रखिये, महवीर के धर्म में जिस तपस्या की इतनी महिमा है, वह शरीर सुखाने की नहीं है। वह शरीर का समुचित संचालन करने के लिए है। उपवास शरीर का शोषण नहीं है। हमने तो तपस्या का सारा सम्बन्ध शरीर से जोड़ लिया है। होता यह है कि हम लोग शरीर को तो सुखा लेते हैं, मगर जब क्रोध आता है तो उसे शान्त नहीं कर पाते, उलटे अपनी अंगुली तोड़ डालते हैं। लोग तप, पूजा आदि से अपने आराध्य की प्राप्ति के प्रयत्न करते हैं। हमें जैनों से तपस्या, वैष्णवों से भक्ति
और मुसलमानों से धार्मिक निष्ठा सीखनी चाहिए। भगवान का आज का तीसरा सूत्र है
तेसिं तु तवो ण सुद्धो, निक्खंता जे महाकुला।
जं नेवन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेज्जई। उन महाकुल वालों का तप भी शुद्ध नहीं है जो प्रवज्या धारण कर पूजा-सत्कार के लिए तप करते हैं। तप इस तरह करना चाहिए कि औरों को पता तक न चले और अपने तप की किसी के समक्ष प्रशंसा भी न हो।
धर्म, आखिर क्या है?
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