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कतार है। आगम-पिटक - पुराण हैं । लेकिन हमारी आचरणमूलक जीवन्तता नहीं रही। महावीर के पाँच महाव्रतों में से हम एक का भी ईमानदारी से आचरण नहीं कर पाते। अहिंसा के अनुयायी कहलाना चाहते हैं, लेकिन पाँवों में जूते चमड़े के हैं । हम अहिंसा के अधिकारी हुए कहाँ ? सत्य और अहिंसा का सम्बन्ध जीवन से समाप्त होता चला जा रहा है । सिद्धान्त हमने पूरी दुनिया को दे दिए। जीवन के नाम पर हमारी झोली तो खाली ही है। आज हमारी मानसिकता, जीवन-शैली, आचरण में गिरावट आ रही है । हमने विकास के नाम पर ऐसे-ऐसे काम किए हैं कि हमारे पूर्वज उन्हें स्वर्ग में बैठे देखकर शरमा जाएँ। हमने टी. वी., इण्टरनेट - सैटेलाइट का विकास तो कर लिया पर भीतर से खोखले होते चले गए ।
कुछ दिन पूर्व एक युवक ने जिसकी उम्र मात्र बाईस वर्ष थी, एक पत्र लिखकर छोड़ा और आत्महत्या कर ली । पत्र में लिखा था - " मैंने दुनिया में जानने लायक सारी बातों का ज्ञान इण्टरनेट पर पा लिया है। अब पाने को कुछ भी शेष नहीं बचा। इसलिए मैं अपना जीवन समाप्त कर रहा हूँ।”
विकास तो हमने खूब किया है, परन्तु गिरे भी खूब हैं । पच्चीस वर्ष पहले जो ज्ञान बीस-बाईस की उम्र में होता था, वह आज दस - ग्यारह साल के बच्चे को है। आखिर जीवन-मूल्य, तप, अहिंसा, क्षमा, करुणा आदि हमारे हाथ से छिटक क्यों रहे हैं? पहले संगीत ऐसा था जो कानों की राह से धारा - प्रवाह हमारे अन्तर्मन में उतर जाता था । आज का संगीत केवल उत्तेजित करता है । प्राचीन संगीत पर आज भी हमारा सिर हिलने लगता है और मन झूम जाता है। आज का संगीत पाँव को हिलने पर मजबूर करता है और कुछ ही देरी में चरमोत्कर्ष पर पहुँच कर समाप्त भी हो जाता है। कहाँ गईं वे शान्त स्वर-लहरियाँ ? आज त्याग-तपस्या का जीवन में जैसे कोई स्थान ही नहीं बचा । यम-नियम संयम की राह दिखाने वाले चित्रों की जगह उत्तेजना भरे, कामुक चित्र घरों की दीवारों पर शोभा पाने लगे हैं। महापुरुषों के चित्र तो कभी-कभार ही कहीं नजर आते हैं। आज हमने संयम के सारे मार्ग खो दिए हैं। आँख का संयम, कान का संयम, जिह्वा का संयम । भोजन अशुद्ध करने लगे हैं। जीने के लिए खाने की बजाय खाने के लिए जीने लगे हैं। नियमों में कहा गया है कि मुनि पवित्र आहार ले, लेकिन इस पर कोई
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धर्म, आखिर क्या है ?
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