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बंधन भी वही करता है, कर्मों का संवर भी वही करता है। दूसरा सत्य, मनुष्य सबसे बच सकता है, लेकिन स्वयं से और स्वयं के कर्मों से कभी नहीं बच सकता । शक्तिशाली से शक्तिशाली व्यक्ति भी अपने कर्मों से हार जाता है। जो दुनिया में किसी से पराजित न हो पाया, वह कर्मों से पराजित हो जाता है।
कर्म की श्रृंखला के चलते महावीर भी अपने पहले भव में सम्यक्त्व को उपलब्ध हो जाने के बाद भी उनकी आत्मा स्वर्ग में जाती, नरक में जाती है, तिर्यंच में जाती है और मनुष्य रूप में जन्म लेती है। कर्म इस दुनिया में किसी के रुके नहीं हैं। भले ही किसी राजज्योतिषी ने श्रीराम के राज्याभिषेक का मुहूर्त निकाल दिया हो, लेकिन कर्म की रेखाएँ इतनी विचित्र हैं कि राज्याभिषेक का मुहूर्त वनवास का मुहूर्त बन जाता है। राजा जनक राम के हाथों में अपनी पुत्री सौंपकर निश्चित होना चाहते थे, लेकिन सीता को कर्मों की प्रबलता के कारण मखमल के स्थान पर कुश की शैय्या ही मिली।
भगवान ऋषभ यूँ तो सम्राट थे, लेकिन पूर्वजन्म के कर्मों के कारण उन्हें संत-जीवन में एक वर्ष तक भूखे रहना पड़ा । हँसते-हँसते मनुष्य कर्म बँधन करता है, लेकिन कर्म-निर्जरा में अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं । जब कर्मों का उदय जीवन में आता है, तब ही व्यक्ति को अतीत की स्मृतियाँ आती हैं । जैसे एक छोटा-सा अँगारा दावानल बन जाता है उसी तरह कर्म का निमित्त जीवन में महाविनाश का कारण बन जाता है। भगवान ऋषभदेव ने केवल बारह घड़ी, बमुश्किल पाँच-छः घंटे तक एक बैल के मुँह पर छींका बाँध दिया था कि वह चारा न खा सके। इसका परिणाम यह हुआ, बारह मास तक प्रभु को वांछित आहार न मिल सका और यह समय उन्होंने निराहार रहकर व्यतीत किया । किसी भी आदमी के हाथ में; कर्मों की रेख पर मेख मारना और कर्मों की रेखाओं को काटना, नहीं है। कर्म करते समय तुम स्वतंत्र होते हो, लेकिन जब भोगते हो तो परतंत्र हो जाते हो। तुम्हें पता भी नहीं होता कि जो हो रहा है वह क्यों हो रहा है ।
कर्मों के समक्ष सभी शूरवीर और योद्धा, बल और धन पराजित हो जाते हैं। आज के परम-पावन सूत्र हैं कि कर्म कर्ता का अनुगमन करते हैं । जैसा कि गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं कि व्यक्ति जिन भावों का स्मरण करते हुए अपनी देह का विसर्जन करता है उन्हीं के अनुसार उसके कर्मों का बंधन होता है। महावीर का भी आज यही परम संदेश है ।
कर्म : बंधन और मुक्ति
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