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________________ नमस्कार करते हैं। पहली बात है मंगल क्या है माम् पापं गालयति सः मंगलम्-जिसका कभी विनाश नहीं होता, जो फिर से नष्ट नहीं होता, जो फिर से दुःख का कारण नहीं बनता, वही मंगल है। जिसके पाप गल गए हैं, वही मंगल है, लेकिन हमने मंगल किसमें जाना है ? संसार के वे 'मंगल' जो हमें अमंगल की दिशा में ले जा रहे हैं। घर में पौत्र का जन्म होता है, तुम उसे मंगल दिन मानते हो, लेकिन यही पौत्र तो तुम्हारी चिता को अग्नि देने वाला है, मंगल का अंत अमंगल में हो गया। तुम पुत्र की शादी करते हो। जीवन भर की कमाई शादी में उँड़ेल देते हो। मंगल गीत गाए जाते हैं। यह मंगल तब अमंगल में बदल जाता है जब पुत्र तुमसे अलग घर बसा लेता है और तुम एकाकी हो जाते हो। भगवान कहते हैं कि संसार के मंगल अंततः अमंगल की दिशा पकड़ते हैं। ___भगवान कहते हैं-धर्म मंगल है। जैसे सुगंध सदा सुगंध ही रहती है, दुर्गंध सदा दुर्गंध ही रहती है, वैसे अधर्म सदा अमंगल और धर्म सदा मंगल रहता है। धर्म तो जीवन की सुगंध है, दिव्यता को पाने का सोपान है। धर्म को मात्र परम्परा मत मानो। धर्म को परम्परा मान लेने का परिणाम यह होगा कि तुम धर्म से भयभीत होओगे। फिर तुम नरक के डर से धर्म करोगे या स्वर्ग के प्रलोभन में। आज तुम्हारी यही स्थिति है कि तुम डर या प्रलोभन के कारण धर्म से जुड़े हो। तुम चढ़ावा चढ़ाते हो दुगुना पाने की उम्मीद से। -धार्मिक पुस्तकों में अगर यह लिखा होता कि भगवान के भंडार में चाहे कुछ भी डालो, वापस कुछ नहीं मिलने वाला है तो दुनिया के सभी भगवानों के भंडार खाली ही रहते। मेरे देखे, जब तक धर्म में भय और प्रलोभन का समावेश है वह धर्म बाहरी धर्म बनकर रह जाता है। जीवन की आंतरिकता से उसका कोई मेल नहीं है। मुझे याद है, दो युवक बैठे थे। उनके पास कोई काम न था। आखिर उन्होंने सोचा, ऐसे बेकार बैठे रहने की बजाय कुछ तो करना चाहिए। एक ने कहा, 'मित्र, एक धंधा दिमाग में आ रहा है। दूसरे ने पूछा, 'क्या धंधा है ?' पहले ने कहा, 'जैसे धर्म का धंधा होता है वैसा ही एक नया धंधा दिमाग में आ रहा है। दूसरे ने पूछा, 'क्या धंधा है ?' पहले ने कहा, 'तू रात को बाल्टी में कोलतार लेकर जाना और रास्ते के मकानों, खिड़की, दरवाजे और काँच पर कोलतार छिड़कते जाना।' धर्म, फिर से समझें एक बार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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