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________________ दशाएँ हैं, इन सबका परित्याग करके अगर तू परमात्म-शरण में लौट आता है तो तू धर्म को आत्मसात् कर लेगा। जब व्यक्ति अपने बाह्य धर्म को त्यागकर आत्मधर्म में प्रवृत्त हो जाता है तब दुनिया में कोई भी ऐसा पाप नहीं है जिससे प्रभु मुक्त न कर सकें। 'अहं त्वाम् सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा सुचः'। जिसने अपने जीवन की हर शुभ-अशुभ दशाओं को, पाप-पुण्य को बिना छिपाए, प्रभु को समर्पित कर दिये हैं, उस धार्मिक व्यक्ति का मोक्ष निश्चित है। धर्म कोई परम्परा नहीं है। समाज, संस्कृति, इतिहास में परम्परा हो सकती है, पर धर्म में नहीं। गणित और विज्ञान में भी वही चलता है जो वर्षों से चला आ रहा है। आइन्स्टीन का सापेक्षता का सिद्धान्त वही है जो उसने प्रतिपादित किया था। अब सापेक्षता को तलाशने की जरूरत नहीं पड़ती। गणित के हिसाब, जो हजारों वर्ष पूर्व बन चुके हैं, अब उन पर फिर से प्रश्नचिह्न लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। जो परम्परा है वह धर्म नहीं है और जो धर्म है वह परम्परा नहीं है। जो धर्म परम्परा में सीमित हो गया वह प्रवहमान नहीं होता, वह तो मृत चट्टान की तरह हो जाता है। जैसे सौ वर्ष पुराना मकान मरम्मत चाहता है वैसे ही हजार वर्ष पुराना धर्म भी युग के अनुसार बदलाव चाहता है। धर्म तो खोज है, शोध है। धर्म वह यात्रा है जहाँ व्यक्ति किसी लीक पर नहीं चलता, अपना रास्ता खुद खोजता है। आप जानते हैं महावीर और बुद्ध समकालीन हैं। इतना ही नहीं वे एक ही राज्य के थे बमुश्किल सौ-पचास मील की दूरी रही होगी, लेकिन महावीर को अपनी शैली से खोज करनी पड़ी। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि बुद्ध खोज न करें या बुद्ध यह सोचकर रुक जाएँ कि महावीर जो खोज करेंगे वह मेरे काम आ जाएगी। बुद्ध को अपनी खोज करनी पड़ेगी, महावीर को अपनी। धर्म कभी समुदाय नहीं होता, धर्म . तो नितांत निजी, वैयक्तिक जीवन होता है। सामुदायिक खोज धर्म में काम नहीं आती, गणित और विज्ञान में काम आ सकती है। धर्म तो वैयक्तिक खोज है। भगवान पार्श्वनाथ महावीर से केवल ढाई सौ वर्ष पूर्व हुए थे, फिर महावीर को सत्य के शोध की क्या आवश्यकता थी? जरूरत इसलिए आ पड़ी कि रास्ते अपने-अपने होते हैं सत्य को पाने के। सत्य तो एक ही है, लेकिन शोध के तरीके अलग हैं। धर्म, आखिर क्या है ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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