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________________ वेद और आवश्यक है, और वह है अन्तरवेद । यानि भीतर का बोध । जिसे पढ़े बिना चारों वेद शायद परिणाम न दे पाएँ । ध्यान इसी वेद को पढ़ने का प्रयास है। जब व्यक्ति के हाथ में ध्यान का मंत्र आ जाता है तब वह तनाव, अशान्ति और अवसाद से मुक्त हो जाता है । इक्कीसवीं सदी के मध्य तक सारी दवाइयाँ अपना असर खो चुकेंगी तब ध्यान एकमात्र कारगर दवा सिद्ध होगा। आज मानव ने विकास की ढेरों सीढ़ियाँ चढ़ी हैं। वह चन्द्रलोक की सैर करके आ गया है । चन्द्रमा तक जाने में उसने अरबों डॉलर खर्च कर दिये, पर वह वहाँ से क्या लेकर आया ? कुछ मिट्टी के कुछ पत्थर के ढेले । अरे जितना परिश्रम चन्द्रमा पर जाने के लिए किया, उतना महावीर और बुद्ध की अन्तरयात्रा के लिए किया होता तो वापसी में उसके पास ऐसे हीरे होते, जिन्हें पाकर वह धन्यभागी हो जाता । अब मनुष्य अपने अन्तरलोक में न उतर पाने के कारण जन्मों-जन्मों से भटक रहा है और उसे कुछ नहीं मिल पा रहा । बहुत घूम लिए बाहर, बहुत बाहर, बहुत देख-सुन लिया बाहर, बाहर का बहुत स्वाद भी ले लिया, अब तो भीतर मुड़ो, सुनो वहाँ की झंकार को, देखो भीतर के जगत को, तो जीओ भीतर की चेतना में, अब तो सूँघो भीतर की सुवास को, अब तो चखो भीतर के स्वाद को। 'रस गगन गुफा में अजर झरै, बिन बाजा झंकार उठे। अन्तरलोक में जरूर ऐसा स्वाद, सुगंध और माधुर्य है कि महावीर और बुद्ध को राजमहल में न मिल पाया और जंगल में मिल गया। जरूर भीतर का ऐसा वैभव रहा होगा, जो राजमहल में नहीं जंगल में मिला । हमने तो कभी इसका स्वाद ही नहीं चखा है, फिर हम उसके रस को क्या जाने ? अमृत उसके लिए है जो अमृत को पहचानता है । ध्यान के लिए जब आप आँखें बन्द करेंगे तो सबसे पहले घना अंधकार पाएँगे। इस अंधकार से डरकर आँखे खोल नहीं लेना है । आप जानते हैं न कि अँधेरे को हटाने के लिए प्रकाश की एक किरण ही पर्याप्त होती है । जितनी अँधेरी रात होती है, उतनी ही सुहानी सुबह होती है । जो अँधेरे से गुजरता है वही प्रकाश की किरणों का अधिकारी होता है । जैसे ही भीतर प्रवेश करोगे पहला तल अँधकार का, दूसरा तल श्वास का, तीसरा तल मन का, चौथा तल चित्त का, पाँचवाँ तल हृदय का, छठा तल प्राण का, सातवाँ तल आत्म-मण्डल ' मुक्ति का मूल मार्ग : ध्यान Jain Education International For Personal & Private Use Only 105 www.jainelibrary.org
SR No.003886
Book TitleDharm Aakhir Kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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