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जिस प्रकार वृक्ष के लिए जड़ महत्त्वपूर्ण है, मनुष्य के लिए मस्तिष्क आवश्यक है, उसी तरह धर्म के, साधना के जो मार्ग हैं उनमें ध्यान का मार्ग प्रमुख है। जन्मों-जन्मों में व्यक्ति जब प्रबल पुण्य का उदय पाता है तब कहीं उसके जीवन में ध्यान और साधना का मार्ग प्रशस्त होता है । जिसके जीवन में ध्यान का मार्ग नहीं है फिर वह चाहे जितनी साधना करे, सब अर्थहीन है।
ध्यान वह महामार्ग है जिस पर चलने से मंजिल निरन्तर करीब आती जाती है। हमें भीतर की ओर जाना है, बाहर तो बहुत भटक लिये, अब अपने अन्दर उसकी खोज करनी है जो हमारा प्राप्य है, हमारा अन्तिम ध्येय है।
मात्र मक्का, काबा, काशी जाने से क्या होगा ? अगर अन्तर - विशोधन न हुआ तो तीर्थ-यात्रा भी परिणाम न दे पाएगी । 'मक्का गया, हज किया, बन के आया हाजी, आजमगढ़ में जब से लौटा फिर पाजी का पाजी' । मूल में कोई रूपांतरण घटित नहीं हो रहा है। धर्म के नाम पर केवल बाहर के क्रियाकांड सम्पादित किये जा रहे हैं पर धर्म का मूल मार्ग तो हाथ से खिसक ही गया है। मन्दिर में जाकर पूजा कर ली जाती है, पर मन पवित्र नहीं हो पाता और स्थानक में जाकर सामायिक कर ली जाती है पर स्वभाव में समता नहीं उतर पाती। ध्यान सामायिक का विशुद्ध रूप है जहाँ व्यक्ति बाहर से ही नहीं भीतर से तटस्थ और साक्षी होता है । तुम नित्य - प्रति सामायिक कर रहे हो, लेकिन इसके रहस्य से अभी अपरिचित हो । इसे अभी तक चेतना की सामायिक नहीं बना पाए हो, तभी तो यह अप्रभावी है । तुम सामायिक में नहीं उतर पाए तभी तो यह क्रोध, यह गलत व्यवहार, यह वाणी का असंयम अभी तक जारी है । मन्दिर में तो गए, पर परमात्मा को नहीं देख पाए । वहाँ भी पद - पैसा और प्रतिष्ठा में उलझकर रह गए। अगर तुम वहाँ आराधना कर पाते तो कभी कम नहीं तौलते, कभी रिश्वत न लेते, किसी पर बुरी नजर नहीं डालते। यह बाहर और भीतर का भेद ही इसीलिए है कि आत्म-ज्ञान का प्रकाश साकार न हो पाया। और जब तक अन्तरलोक में प्रवेश नहीं होता तब तक तुम चाहे दसों दिशाओं में खोज आओ, ईश्वर से मिलन नहीं होगा। सारे वेदों के ज्ञाता हो जाओ, लेकिन अन्तर के वेद को न पढ़ा तो धर्म और अध्यात्म के रहस्यों से अनभिज्ञ रह जाओगे । हम चारों वेदों का परायण करते हैं । पर एक पाँचवाँ
धर्म, आखिर क्या है ?
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