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________________ दोष की बात आए तो मौन हो जाना चाहिए। जीवन बहुत जटिल है। यदि दोष की बात में आप बोलेंगे तो आप शब्दों के गुलाम हो जाएँगे।सुनने वाले आपकी बात के अनेक अर्थ निकालेंगे। आमतौर पर यह देखा जाता है कि किसी की प्रशंसा करनी हो तो पाँच-दस मिनट में हमारी जिह्वा थक जाती है और यदि बुराई करनी हो तो घंटों व्यतीत हो जाते हैं पर थकती नहीं है। जबकि प्रत्येक में अच्छाई और बुराई दोनों होते हैं । जड़ और चेतन दोनों में अच्छाई रहती है, पर पहचानने की दृष्टि मनुष्य में अवश्य होनी चाहिए। चतुर शिल्पकार पत्थर के टुकड़े में भी देवी-देवता और राजा-रानियों की आकृतियाँ देख सकता है। इसी प्रकार पर गुण दर्शन की वृत्ति हो तो सभी में गुण देख सकते हैं और प्राप्त कर सकते हैं। दूध और पानी मिश्रित कटोरे के पास राजहंस आता है तो मात्र दूध ही ग्रहण करता है। उसमें मिले पानी को छोड़ देता है। लेकिन किसी व्यक्ति का स्वभाव ही ऐसा होता है कि वह दूसरों की भूलों और त्रुटियों को ही ढूँढ़ता रहता हैं । जैसे चींटी सर्वत्र छिद्र ही ढूँढ़ती है। यह छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति मनुष्यों की नहीं होनी चाहिए। उनकी दृष्टि तो गुणान्वेषण की होनी चाहिए। एक बार श्रीकृष्ण भगवान तीर्थंकर नेमिनाथ के दर्शन करने जा रहे थे। यादव परिवार भी उनके साथ था। रास्ते में एक कुतिया थी। उसके शरीर से रक्त, पीप बह रही थी। दुर्गंध आ रही थी। सभी मुँह फेर कर नाक पर रुमाल रखकर आगे की ओर बढ़ रहे थे, पर कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने कहा-अहा! इसके दाँत कितने सुन्दर है। सड़े हुए दुर्गंध युक्त शरीर पर उन्होंने ध्यान नहीं देकर उसके दाँतों की प्रशंसा की। इस प्रकार की गुण ग्राहकता हमारे भी होनी चाहिए। हमें यदि देखना है तो स्वयं के दोषों को देखना चाहिए अपने गुणों को नहीं। दोषों को देखना शुरू कर दिया तो हम आगे बढ़ सकेंगे और गुणों को देखेंगे तो मन-ही-मन स्वयं की प्रशंसा करेंगे तो अहं की पुष्टि होगी। मक्खी स्वच्छ स्थान पर या शरीर के स्वस्थ स्थल पर नहीं जाकर फोड़ेफँसी या घाव पर ही बैठती है। चील की दृष्टि मरे हुए सर्प पर पड़ती है। इसी प्रकार दोष दृष्टि वाला सर्वत्र दोषों को ही देखता है। मनुष्य को चील नहीं राजहंस बनना है। उसकी दृष्टि मरे हुए सर्प पर नहीं अपितु सच्चे मोतियों की | 89 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003884
Book TitleBahetar Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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