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आने का उपयुक्त समय तो अब हुआ है। मानव धर्म सेवा करने का तो मौका अब है । इस प्रकार सोचकर उसने उसे उठाया आश्रम में ले गया। स्वयं प्रतिदिन उसके घाव प्रेम-करुणा भावों से साफ करने लगा। धीरे-धीरे वह स्वस्थ हो गई। उस संत ने उससे कहा मैं उचित अवसर की प्रतीक्षा कर रहा था, क्योंकि जब इंसान को चारों तरफ निराशा हाथ लगती है तब संत ही उसमें आशा का संचार करते हैं और संसार से मुक्त करते हैं । वासवदत्ता जाग्रत हो गई । उसने संत के चरणों में जीवन समर्पित कर दिया और मुक्त हो गई।
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इसे कहते हैं सच्ची, निःस्वार्थ सेवा । उस संत ने आत्म कल्याण करते हुए सेवा-भाव से वासवदत्ता को वासना से मुक्त कर साधना में नियोजित कर दिया ।
जीवन जीना भी एक कला है। सेवा भी उसका एक मौलिक चरण है आत्मीयता, करुणा, परोपकार, संवेदना होने पर ही हम सेवा कर सकेंगे । दिखावे में, प्रदर्शन में, अहं में, नाम यश की भावना से की गई सहायता में सेवा नहीं है। हमें दूसरों की सेवा में संलग्न होना है स्वयं की सेवा कराने का भाव मन में कदापि नहीं रखना है। इसके लिए निष्काम भावना की, मनोबल की महती आवश्यकता है । वास्तव में हमारा धर्म ही सेवा है, जब तक समाज में सेवा भाव नहीं होगा, उच्च एवं आदर्श समाज की परिकल्पना नहीं हो सकती है ।
मुझे ऐसे अनेक सद्गृहस्थ मिले जो चुपचाप, गुप्त रूप से सहायता करके प्रसन्न होते हैं । वास्तव में सेवा तो तन-मन-धन से नि:स्वार्थ भाव से ही होनी चाहिए। यदि हम सेवा नहीं कर सकते हैं तो उसका अनुमोदन अवश्य करें अर्थात् अपनी अंर्तआत्मा से दुःखी व्यक्ति के स्वस्थ होने की परमात्मा से प्रार्थना अवश्य करें हमारी सच्ची दुआ भी दवा का काम कर जाया करती है ।
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