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सामान के साथ रास्ते में खाने-पीने का भाता भी पूरा तैयार करती है। बहू से भी सामान बाँधने को कहती है। रविवार का दिन है, बेटा आता है। माँ की प्रसन्नता का पारावार नहीं है। बेटा कहता है माँ हम तीन घंटे बाद यहाँ से यात्रा के लिए चलेंगे। माँ स्थान का नाम पूछती है। बेटा कहता है माँ तुम चलोगी तो पता चल जाएगा। बेटा तीन घंटे बाद ए.सी. कार में माँ को ले जाता है। माँ परमात्मा को धन्यवाद करती है। दो घंटे बाद एक आश्रम के आगे कार रुकती है। माँ सोचती है तीर्थ स्थान की धर्मशाला होगी। बेटा माँ का सामान लेकर कार्यालय में जाता है। फार्म भर कर रजिस्टर में एन्ट्री करता है। माँ को कमरा मिलता है वहाँ ले जाकर बेटा माँ से कहता है – माँ! मैंने तुम्हें अन्तिम समय में यात्रा करवा दी है। मेरे और मीनू के लिए अब तुम्हारी और देखभाल करना सम्भव नहीं है। यह वृद्धाश्रम है यहाँ तुम्हारी देखभाल की, खाने की कोई कमी नहीं रहेगी। मैंने साल भर के पैसे जमा करवा दिए। हाँ, यह पाँच सौ रुपये लो। मैं तुम्हें हर महिने हाथ खर्च भी भेज दूंगा। यह सुनकर माँ अवाक रह जाती है उसके नेत्रों में आँसू गिरते हैं बेटा-बहू माँ को छोड़कर आ जाते हैं।
इधर आश्रम में माँ भजन-कीर्तन में धीरे-धीरे मस्त हो जाती है। दस महिने बाद माँ बीमार हो जाती है। बेटे-बहू से मिलने की इच्छा जाहिर करती है। आश्रम के प्रबंधक द्वारा 3-4 पत्र बेटे-बहू को डाले जाते हैं, पर निष्ठुर बने हुए वे ऐशो आराम की ज़िंदगी व्यतीत करने वाले माँ की सुध लेने नहीं आते। एक महीना और बीत गया। माँ निरन्तर अपने लाडले को याद कर रही है वो नहीं आया पाँच सौ रुपये और अवश्य आ जाते हैं । माँ की हालत बिगड़ते हुए देखकर आश्रम द्वारा तार भेजा जाता है। तब बेटा बहू आश्रम में आते हैं। आश्रम में प्रवेश करने पर बेटे-बहू को एक कक्ष में ले जाते हैं। जहाँ अपने बेटे-बहू के इंतजार में जिस माँ ने अपना एक-एक पल व्यतीत करते हुए जब अपने जीवन की अन्तिम घड़ियाँ देखी तो आश्रम के अधिकारी को एक लिफाफा थमाते हुए कहा मैं तो जा रही हूँ, मेरा पुत्र बड़ा अधिकारी है, काम में व्यस्त हो गया होगा। जब भी वह आवे आप यह लिफाफा उसे थमा देना। मैं सदा-सदा के लिए अपने घर जा रही हूँ। आप लोगों ने मेरी जो सेवा की उसकी मैं सदैव ऋणी रहूँगी। मेरे पुत्र के पास समय नहीं है आप लोग अंतिम संस्कार कर देना। इधर माँ लिफाफा देकर हाथ नीचे करने लगती है उसके प्राण प्रखेरू उड़ जाते हैं।
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