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मन के मधुमास को बचाओ। बुरे विचारों के पीले पत्तों का पतझड़ हो जाने दो। पुराने आग्रहों को, आक्रोशों को त्यागेंगे, तभी तो नई कोपलें फूटेंगी। ईर्ष्या, घृणा, क्रोध, वैर-वैमनस्य जैसी तमाम नकारात्मकताओं को हटा दो। एक बार बच्चे ही बन जाओ। बच्चे भी लड़-झगड़ बैठते हैं, पीटते भी हैं और पिटते भी हैं, पर बोलचाल बंद नहीं करते। हम ही लोग हैं जो गाँठें बाँध लेते हैं। मन की धारा को, मानसिकता को बदलें, अपनी सोच, अपने नजरिये और अपनी प्रस्तुति को पोजेटिव बनाएँ।
जीवन से बुरी सोच को हटाएँ। बुरी सोच नकारात्मकता है। नकारात्मकता तो वह है जहाँ व्यक्ति दूसरों को इन्कार करना प्रारम्भ कर दे
और सकारात्मकता वह है जहाँ व्यक्ति दूसरों को भी मूल्य देना प्रारम्भ कर दे। 'मेरा सो सच्चा' यह नकारात्मकता है और 'सच्चा सो मेरा' यह सकारात्मकता है। नकारात्मक विचार अपने आप आते हैं, जबकि सकारात्मक विचार व्यक्ति के स्वयं के प्रयास होते हैं। नकारात्मक विचार अनायास ही चले आते हैं। बेटा कार लेकर गया है, आधा घण्टे तक लौटा नहीं', इस परिस्थिति में तत्काल ही नकारात्मक विचार आ जाएगा कि क्या कहीं कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई? वस्तुतः सकारात्मक विचारों को लाना व्यक्ति के जीवन में एक बहुत बड़ी चुनौती है। विचारों को व्यवस्थित करना जीवन की बहुत बड़ी साधना है। नकारात्मक विचारों से बढ़कर जीवन में कोई रोग नहीं होता और सकारात्मक विचारों से बढ़कर जीवन में कोई आरोग्य नहीं होता। नकारात्मक विचारों से बढ़कर जीवन में कोई समस्या नहीं होती और सकारात्मक विचारों से बढ़कर जीवन में कोई समाधान नहीं हुआ करता।
नकारात्मक विचारधारा वाला व्यक्ति अपने जीवन में निश्चित रूप से असफल रहता है और सकारात्मक सोच का धनी असफल होकर भी जिन्दगी में सफलताएँ अर्जित कर लिया करता है। नकारात्मक विचार पाप है तो सकारात्मकता अपने आप में पुण्य । नकारात्मकता से बढ़कर कोई विधर्म नहीं हुआ करता और सकारात्मकता से बढ़कर कोई धर्म नहीं होता। ज्यों ही नकारात्मक विचार हावी हुए, व्यक्ति संदेह करने लग जाएगा कि कहीं यह ६२
आपकी सफलता आपके हाथ
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