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यही इच्छा, यही सपना बना रहा कि मैं विश्व-चैम्पियन बनूँ।
जब भी वह डॉक्टर से मिलती, यही बात कहती। डॉक्टर हँसते और कहते- 'बेटा! अब तुम यह भूल ही जाओ, क्योंकि चैम्पियन बनना तो दूर, तुम बैसाखी के बिना चल भी नहीं सकती।' लेकिन उस लड़की ने तेरह वर्ष की उम्र में यह संकल्प ले लिया तथा अपने मनोबल और अपनी इच्छाशक्ति को इतना अधिक मजबूत बना लिया कि यदि अब मैं चलूँगी तो मात्र अपने पाँवों से ही चलूँगी, बैसाखी से नहीं। उसने बैसाखी फैंक दी और वह पाँवों से चलने की कोशिश करने लगी। वह बार-बार गिरती, बार-बार सँभलती। मगर धीरे-धीरे उसके पाँवों में मजबूती आने लगी। वह अपनी इच्छा-शक्ति के बल पर धीरे-धीरे चलने लगी।
वह एक कोच के पास गई और उसने उसे अपने विश्व-चैम्पियन बनने की मानसिकता बताई। कोच ने कहा- यह बात तो तय है कि तुम विश्व-चैम्पियन नहीं बन सकती। अभी तो तुम ढंग से दौड़ भी नहीं सकती, लेकिन तुम बचपन से जिस इच्छा-शक्ति को पाले आ रही हो, वह तुम्हें अवश्य चैम्पियन बनाएगी।'
आप आश्चर्य करेंगे यह जानकर कि उन्नीस वर्ष की उम्र में उस लड़की ने उन्नीस सौ साठ में हुए ओलम्पिक में सौ मीटर की रेस में स्वर्ण पदक जीता, दो सौ मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक जीता और चार सौ मीटर की दौड़ में भी स्वर्ण पदक जीता।
पोलियो से ग्रस्त एक अपाहिज लड़की अगर अपने मनोबल को मजबूत कर ले तो वही लड़की अर्थात् 'विल्मा रूडोल्फ' उन्नीस सौ साठ के ओलम्पिंक में विश्व चैम्पियन बन कर लोगों के सामने ऐसा आदर्श प्रस्तुत करती है कि अगर आदमी चाहे तो उसके लिए सब कुछ संभव है।
रवीन्द्र जैन जो कि एक अन्धे व्यक्ति हैं, अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर दुनिया भर की श्रेष्ठतम फिल्मों में संगीत दे चुके हैं और संगीत के श्रेष्ठतम एल्बम बना चुके हैं। बीथोवन, जो कान से बहरे थे, उन्होंने भी संगीत क्या करें कामयाबी के लिए?
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