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राजा भर्तृहरि के बारे में एक घटना प्रसिद्ध है कि जब भर्तृहरि राजसभा में बैठे थे तभी किसी ने उन्हें एक अमृत फल दिया और कहा कि राजन् ! जो भी इस फल को खायेगा वह सदा-सदा के लिए अमृत और अमर हो जाएगा, अत्यन्त सुन्दर : भी।
कहानी के अनुसार राजसभा में बैठा हुआ राजा भर्तृहरि सोचता है कि मैं तो बूढ़ा हो चला हूँ, अब इस फल को क्या खाऊँ, मैं इसे अपनी राजरानी को, जो अभी युवा है, जिस पर मैं बहुत अनुरक्त हूँ, हमेशा उसी का चिंतन करता हूँ, क्यों न उसे ही खिला दूँ। भर्तृहरि ने वह फल राजरानी के पास भेज दिया। राजरानी महावत पर आसक्त थी, उसने वह अमृतफल उसे सौंप दिया। महावत का प्रेम किसी वेश्या से था । उसने वह अमृतफल वेश्या को दे दिया । वेश्या ने सोचा मैं इस फल को खाकर क्या करूँगी, मैंने तो जीवन भर पाप-ही- पाप किए हैं। मैं युवा या अमर होकर क्या करूँगी। क्यों न इसे अपने सम्राट को भेंट कर दूँ। वह एक नेक राजा है । वह अगर युवा, सुन्दर और अमर होता है, तो पूरे साम्राज्य का भला होगा । वह फल वापस भर्तृहरि के हाथ पहुँचता है । उसे देख-देखकर वह वैराग्यवंत होता है और एक नए 'शतक'वैराग्यशतक' की रचना होती है। उसके पहले ही चरण में यह बात आई हैयां चिन्तयामि सततं मयी सा विरक्ता- ओह, जिसके बारे में मैं दिन-रात सोचा करता था वह मुझसे इतनी विरक्त निकली। मुझे नहीं मालूम कि वह मुझसे इतनी विरक्त है जबकि मैं उसी के बारे में सतत चिंतन किया करता हूँ । राजसभा में भी उसे ही याद करता, शिकार पर जाता तब भी उसी की चिंता करता । धर्म - मार्ग पर बढ़ता तब भी उसकी याद को न भुला पाता, लेकिन ओह वह तो मुझसे कितनी विरक्त है। भर्तृहरि बदल गये। राजा भर्तृहरि राजर्षि भर्तृहरि हो गए।
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मनुष्य संसार में, काम-भोग में आसक्त है, वह अनुभव भी करता है, ठोकर भी लगती है, लेकिन राजर्षि भर्तृहरि जैसे लोग जाग जाते हैं और आम लोग बार-बार ठोकर लगती है फिर भी वहीं-वहीं जाकर गिरते हैं । चित्रमुनि कह रहे हैं - राजन् ! यदि तुम काम-भोगों को छोड़ने में असमर्थ हो, मैं तुम्हें छोड़ने के लिए प्रेरित कर रहा हूँ, फिर भी तुम नहीं छोड़ पा रहे हो । मनुष्य की यह आसक्ति, मनुष्य की कर्मनियति का उदय, मनुष्य का यह मिथ्यात्व कि चाहते हुए भी, धर्म को जानते हुए भी वह काम - भोग से निवृत्त नहीं हो पाता ।
‘जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति जानाम्य धर्मं न च मे निवृत्ति' । दुर्योधन महाभारत में कहते हैं कि मैं धर्म को जानता तो हूँ फिर भी उसमें प्रवृत्त नहीं हो पाता, मैं अधर्म को भी जानता हूँ, फिर भी उससे निवृत्त नहीं हो पाता । पर ऐसा क्यों? भोगों के प्रति आसक्ति ही वह कारण है । चित्रमुनि कहते हैं कि तू यही मत समझ कि काम-भोगों को छोड़ देना ही धर्म है। काम-भोग से उपरत हो सको तो बलिहारी ! न हो सको, तो
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