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ने ओढ़ लिया है। लोक-प्रतिष्ठा और लोक-व्यवहार न हो तो मनुष्य पशुता की सीमा लाँघ जाएगा। काम के जितने संवेग मनुष्य के मन में समाये हैं, उतना धरती पर अन्य किसी प्राणी के मस्तिष्क में नहीं मिलेंगे।आदम की जात इतनी विकृत और तृष्णातुर है। संबोधि और विपश्यना जैसी ध्यान-विधियाँ वास्तव में संवेगों की निर्मलता के लिए है। चित्त की शांति और शुद्धि के लिए है।
हम अपनी वृत्तियों के प्रति होशपूर्ण बनें । संवेग तो उठेगे, शरीर अपने स्वभाव में आ सकता है, हमारा होश और ध्यान बरकरार रहना चाहिए। मल की परतें चाहे जितनी चढ़ी हुई हैं, आखिर तो ख़त्म होंगी ही अगर मल से ऊपर उठने का प्रयास और जागरण रहे। मेरे देखे जो काम से निष्काम हो गया उसके जीवन से हिंसा अपने आप चली जाती है। उसकी परिग्रह से आसक्ति टूट जाती है, वह जीवन में कभी चोरी कर ही नहीं पाता क्योंकि वह समझता है चोरी करना सबसे असुंदर काम है। वह तो सत्यं शिवम् सुन्दरम् का सूत्रधार बन जाता है। वह सत्य से प्रेम करता है, शिवत्व उसकी आत्मा में विराजमान रहता है, वह सौन्दर्य से प्रेम करता है लेकिन काया का सौन्दर्य ही सौन्दर्य नहीं है, वे सब चीजें सौन्दर्य से जुड़ी हैं जहाँ धरती का कल्याण है, मनुष्य का कल्याण है, जिसमें सत्य व शिव भी है।
मनुष्य कभी तृप्त नहीं होता। बिना होश को जाग्रत किए, बिना चित्त की सजगता के कोई तृप्त नहीं हो सकता।अपने आप को देखो और पूछो कि कितने तृप्त हुए। तृप्ति और अतृप्ति के अन्तर्द्वन्द्व से गुजरते हुए वह जान रहा है कि कुछ भी पूर्ण नहीं है लेकिन फिर भी रत है कि शायद....! सभी को अनुभव है। किताबी ज्ञान और अनुभवों से जानते हुए भी हम उससे मुक्त नहीं हो पाए हैं। एक अदम्य वेग उठता है और हम गिरने को मजबूर हो जाते हैं। हमारा पुस्तकीय ज्ञान, हमारी समझ बहुत ऊपर-ऊपर है और क्रोध, काम हमारे ठेठ अन्तस्तल की गहराई में छिपे हुए हैं। मनुष्य के अंदर जितनी महत्वाकांक्षा वासना को आपूर्त करने के लिए होती है उतनी ही गहरी आकांक्षा मुक्ति के लिए होगी तभी मुक्ति की कोई संभावना, मुक्ति की कोई मीनार खड़ी होती है। ___अनुभव से लोग कुछ नहीं सीखते। हर बार क्रोध करते हैं और प्रायश्चित करते हैं कि अब क्रोध नहीं करेंगे । जब तुम क्रोध में नहीं होते तब क्रोध के सारे अवगुणों को जानते हो कि क्रोध ज़हर है, क्रोध आग है, व्यक्ति को जलाती है लेकिन जैसे ही क्रोध की चिनगारी भड़कती है, उसमें सारा ज्ञान स्वाहा हो जाता है। सभी जानते हैं कि आग से हाथ जल जाता है, उसके बावजूद भीतर से उठने वाला संवेग मनुष्य को आग में हाथ डालने के लिए प्रेरित करता है। आदमी बार-बार जलता है,सौ-सौ बार जलता है, तब भी जलने के लिए उत्साहित रहता है। कितनी बार काम के द्वार पर
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