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________________ तक है। मैं तो समझता हूँ कि संसार का कारण न तो क्रोध है, न कषाय, न अहंकार है, अपितु जन्मों-जन्मों तक संसार के निर्माण का मुख्य कारण मनुष्य के मन में बसने वाली वासना (इच्छा) है, काम-भोग की भावना है। वह व्यक्ति वीतराग है जो कंचन और कामिनी से उपरत है। उसकी सांसारिकता की तृष्णा मिट चुकी है। सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य सबके पीछे एक अकाम है, ब्रह्मचर्य है। यदि कामभाव छूट रहा है तो अहिंसा चरणों में झुकेगी, सत्य आरती उतारेगा, अचौर्य सेवा करेगा। काम की अतृप्ति से परिग्रह का जन्म होता है। काम के विफल होने पर चोरी की भावना जाग्रत होती है। जब काम विकारग्रस्त होता है तो हिंसक हो जाता है। काम के अन्तर्मन में ही चोरी, हिंसा और परिग्रह छिपा है। महावीर ने पहला सिद्धांत अहिंसा का दिया, लेकिन मैं कहूँगा पहला सिद्धान्त अकाम का होना चाहिए। निष्काम होने का। हिंसा तो बहत ऊपर है,बाह्य है, जबकि काम हमारे अवचेतन तक जड़ें जमाए है। वही तो मूल रोग है, इसलिए आदमी लगभग हर वक़्त काम की धारा में बहता रहता है। मनुष्य के अवचेतन की यह धारा कभी बाहर उभर आती है, कभी भीतर ही दबी रहती है। गृहस्थी में रहने और संन्यास लेने से काम और अकाम का संबंध नहीं है। हमारी अपने अवचेतन के प्रति सजगता हो जाए, जागरूकता आ जाए तो व्यक्ति काम से निष्काम खुद ही होने लगता है, क्योंकि जहाँ काम का तूफान है, काम का भँवर है, जहाँ काम की आग जलती है वहाँ उसने शांति और पवित्रता की सजगता, आत्म-निर्मलता पर ध्यान केन्द्रित कर लिया। जीवन का जहाँ मूल स्रोत है वहीं काम मँडराता है और हमारा होश, हमारी सजगता उस केन्द्र पर स्थिर हो जाए तो व्यक्ति काम से निष्काम होने लगता है। अकाम को, ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होना स्वयं का परम शांति में विन्यास करना है। आज जिधर देखो, उधर सैक्स की छवि है। राजनीति, खेल और फिल्म - ये तीन ही दुनिया पर हावी हैं। जीवन के मूल्य और जीवन की शुद्धता तो आम लोगों के लिए कोई अर्थ ही नहीं रखती। आम आदमी का काम से रहित और मुक्त हो जाना सम्भव नहीं है। काम से मुक्त होने के लिए मन से मुक्त होना पड़ेगा। चित्त-दर्शन, चित्त-निरोध, चित्तसाक्षीत्व और चित्त-शुद्धि से गुजरो तो मन की शान्ति और निष्काम का निर्झर लगातार बहेगा। जैसे लोग वेश ओढ़कर संन्यासी हो जाते हैं, ऐसे ही ब्रह्मचर्य-व्रत को भी लोगों 181 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003882
Book TitleBanna Hai to Bano Arihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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