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________________ और उसके पास जो अथाह वैभव है, उसको स्वीकार कर आधा राज्य स्वयं वरण कर ले। संत ने न केवल उसके आमन्त्रण को ठुकरा दिया, बल्कि अपनी ओर से अमृतवाणी भी सुनाई। ब्रह्मदत्त को समझाया कि वह इस साम्राज्य से, काम-भोग से स्वयं को विरक्त करते हुए परमात्म-पथ का, संयम-पथ का अनुसरण करे। लेकिन ब्रह्मदत्त अपने भाई चित्रमुनि की बात स्वीकार न कर पाया और कहा नागो जहा पंकजलावसन्नो, दटुं भलं नावि समेय तीरं। एवं वयं कामगुणेसु गिद्धा, न संयमो मग्गमणुव्वयामो।। सम्राट ने कहा- जैसे दलदल में फँसा हाथी स्थल को देखकर भी किनारे नहीं पहुँच पाता, वैसे ही हम कामभोगों में आसक्त जन जानते हुए भी संयम-मार्ग का अनुसरण नहीं कर पाते। ___जब चित्रमुनि ने देखा कि उनके लाख समझाने के बावजूद सम्राट वैराग्यवंत नहीं हो रहा, तो जाते-जाते अंतिम संदेश के रूप में कहने लगे जइतंसि भोगे चइडं असत्तो, अज्जाईं कम्माइं करेहि रायं। धम्मे ठिओ सव्वपयाणुकम्पी तो होहिसि देवो इओ विउव्वी।। चित्रमुनि ने कहा- राजन्, यदि तू कामभोगों को छोड़ने में असमर्थ है तो आर्य कर्म कर। धर्म में स्थित होकर सब जीवों के प्रति दया करने वाला बन, जिससे कम-से कम तू देव तो हो सके। 'ब्रह्मदत्त और चित्रमुनि का जन्मों-जन्मों का संबंध!' स्वाभाविक है कि किसी सम्राट को जाति-स्मरण हो जाए और पता चले कि मेरा कोई भाई भी रहा था, तो वह चाहेगा कि उसे वह भाई मिल जाए। जन्मों-जन्मों तक जिसका सामीप्य, जिसका बन्धुत्व मिला हो, वह चाहेगा कि इस जन्म में भी उसका सान्निध्य और मैत्री मिले। इस जन्म में भी आपस में मिलन हो जाए, तो व्यक्ति का प्रमदित प्रसन्न होना स्वाभाविक है। दो वर्ष के बिछुड़े हुओं से मिलने पर भी हमारी आँखें भर आती है, तो कल्पना करो कि सात-सात जन्मों पुराने किसी मनमीत का मिलन हो, तो वह कितना प्रसन्न होगा! वह तो कहेगा क्या कहूँ कि मैं क्या हुआ आज, कृत-कृत्य कहूँ, चिर धन्य कहूँ। जब तुम आए मम हदय-राज, तब निज को क्यों न अनन्य कहूँ।। ब्रह्मदत्त के पास वैभव है, इसलिए वह अपने भाई को वैभव लेने के लिए 179 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003882
Book TitleBanna Hai to Bano Arihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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