SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काम, बद्धरेकता का तीसरा रूप है। कामुकता और विलासिता से बढ़कर बद्धकता का और कोई रूप नहीं है। काम के दलदल में उलझा व्यक्ति विधर्मी है, कर्तव्यबोध से च्युत है, मर्यादाओं से विरत है । बाली अपने भाई की पत्नी, सुग्रीव की पत्नी रूमा को हर लेता है । सुग्रीव बाली को मारकर उसकी पत्नी तारा से विवाह रच लेता है। विलासिताएँ भटकाती है, कामुकताएँ अबोध बच्चे-सी हरकतें करवाती हैं । बद्धकताओं को कौन पहचाने ? 1 मनुष्य आबद्ध है। मनुष्य किसी को पत्नी बनाता है और खुद उसका पति बनता है, पर वह पति कम, पत्नी अधिक उसका पति बन जाती है । कहने भर को कोई गुलाम हुआ, पर हक़ीक़त में आदमी खुद उसका गुलाम हो गया। जिसके बग़ैर काम न चले, वह हमारा स्वामी हो गया। जिसकी बात हमें माननी पड़े, वह हमारा पति हो गया। 1 वस्तु और व्यक्ति को अपने में बाँधकर व्यक्ति खुद ही बँध जाता है। बंधन का यह मनोविज्ञान है । बाहर से व्यक्ति बँधता है और भीतर से मन बँधता है । यह बन्धन ही व्यक्ति की ग्रन्थि है । किसी और से स्वयं का बंध जाना ही परिग्रह की बुनियाद है । परिग्रह यानि पकड़ । जितनी तेज पकड़, उतने ही तुम परिग्रही ! जितनी गहरी मूर्च्छा, उतने ही तुम दलदल में ! जिन राहों पर तुम चलते रहे हो, वे राहें तुम्हें सत्य के, लक्ष्य के, मुक्ति के किनारे नहीं दे पा रही हैं। वे दलदल में ले जा रही हैं। आखिर क्यों? लंगर खोलो तो ही यात्रा शुरू हो, यात्रा पूर्ण हो । अन्यथा नाव वहीं की वहीं खड़ी रहेगी, पड़ी रहेगी। दलदल में थे, दलदल में बने रहेंगे- मैं, आप सब ! वे सब, जो अपनी चेतना की स्थिति को बदल नहीं पा रहे हैं । - - 1 बद्धरेक! एक वह जो बँधा रहा । पर बद्धरेक जगा, तो बद्धरेक हुआ । बद्धरेक यानि एक वह जो बुद्ध हुआ, बोध को उपलब्ध हुआ । बद्धरेक तो सारा जगत है, बद्धरेक तो वही होता है, जो दलदल से बाहर आने का साहस कर ही बैठता है । मेरा सम्बोधन बस आपके साहस को चुनौती है। बस, तुम्हारा निजत्व जग जाये, बुद्धत्व जग जाये, बंधन की आत्मा समझ में आ जाये । जीवन के दायरे व बंधन बहुत सुदृढ़ हैं। मैं अंग्रेजों की उस परतंत्रता की बात नहीं करता और न ही कारागार में बँधे, बेड़ियों, हथकड़ियों की बात करता हूँ। मैं तो उन बंधनों की बात कर रहा हूँ, जो हमें बंधन के रूप में दिखाई ही नहीं देते । लोहे की जंजीरों को एक बार तोड़ा भी जा सकता है, पर मैं तो उन रेशमी धागों की बात कर रहा हूँ, जिनके वशीभूत होकर व्यक्ति अपने प्रेम और अपनी आत्मीयता को संकीर्ण कर डालता है। मैं उन बंधनों की बात कर रहा हूँ, जिनके रहते हर कोई अपने में मालिक की भावना पाले हुए है । 1 70 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003882
Book TitleBanna Hai to Bano Arihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy