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चोटी मत रखो।अब चोटी में भी पतली-मोटी,लम्बी-छोटी के झगडे हैं। कोई दाढी में धर्म मानता है, दाढ़ी भी तरह-तरह की, मूंछ वाली-बिना मूंछ वाली।कोई चंदन का तिलक लगाता है, कोई भस्म का, तो कोई कुंकुम का, उसमें भी अलग-अलग डिजाइन। फिर मालाओं की झंझट - तुलसी की, चन्दन की या रुद्राक्ष की हज़ार रूप बना रखे हैं। अब झगड़ा वस्त्रों का - कहीं पीताम्बर, कहीं श्वेताम्बर। धर्म का बाह्य स्वरूप इतना बिगड़ गया है कि मूल आत्मा तो कहीं खो ही गई है। हम सिर्फ बाहर के रूप पर आकर्षित होते हैं। धर्म किसे माने? भोजन करना है तो कहेंगे पात्र में या कर-पात्र में । चलो पात्र में भोजन किया तो श्वेताम्बर कहेंगे लकड़ी के पात्र में, बौद्ध कहेंगे लौह-पात्र में, हिन्दुओं का मत है ताम्र-पात्र में। चलना है तो कोई वाहन-यात्रा स्वीकार करता है, कोई कहता है पद-यात्रा करने से ही धर्म होगा। पद-यात्रा में भी पदत्राण पहना जाए या न पहना जाए। .
धर्म हज़ार रूप ले चुका है। अब कोई पूछे कि तुमने बाल रखे या नहीं इससे तुम्हारी आत्मा में कौन-से संस्कार आए? तुम चप्पल पहनकर चले या नंगे पाँव, तुम्हारी वृत्ति में या जागरूकता में यह कहाँ उपयोगी है? तथाकथित धर्म में बहुत विरोधाभास है। रात को धर्म-स्थान में चलेंगे तो डण्डासन (झाडू जैसा उपकरण) करते हुए, परिमार्जन करते हुए चलो, लेकिन सुबह चार बजे अंधेरे में विहार कर जाते हो तब कौन-सा डण्डासन चलता है? कहाँ परिमार्जन हो पाता है। . यहाँ सामायिक करते हो, मुँहपत्ती बाँध लेते हो, पर जब एक घंटा बिल्कुल मौन ही रहना है फिर मुखवस्त्रिका की क्या आवश्यकता? जब घर में सास-बहू झगड़ा करती है, पति-पत्नी के मध्य बहस होती है, ग्राहक-व्यवसायी के बीच मनमुटाव होता है, उस समय ये मुखवस्त्रिकाएँ कहाँ चली जाती हैं। उस समय इनका उपयोग क्यों नहीं करते। मैंने तो धर्म का यही रूप जाना है कि व्यक्ति अपने चित्त को शुद्ध बनाए, अपनी आत्मा को निर्मल बनाए। राग-द्वेष से रहित होकर पवित्रता से और मोह-बन्धनों से मुक्त होकर निर्ग्रन्थ जीवन जीए, यह धर्म का सार है।
महावीर को समझें और महावीर उचित लगे तो उनके प्रति आस्था रखें। बुद्ध ठीक लगे, तो बुद्ध की पूजा करें। जो आपके मन को भा जाए, वही ठीक। चाहे जो हो, सबका नवनीत एक ही है - मन की शांति, अन्तरात्मा की निर्मलता। जप करने वाला व्याकुल रहे, ध्यान करने वाला अतृप्त और विचलित रहे, तपस्वी चिड़चिड़ाता रहे, तो मैं नहीं जानता कि वह कितना धर्माचारी हुआ।
धर्म के नाम पर हम क्रिया-काण्डों में उलझ गए और उसे ही धर्म मानने लगे। छुआछूत, जात-पात, बलि देना, प्रसाद चढ़ाना, इन सबको हमने धर्म समझ लिया है। हमने इतना ही धर्म जाना कि प्रतिदिन मंदिर जाओ, प्रतिमा को मत्था टेक दो और
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