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________________ व्यवस्थाएँ भी हमें देगा। मैं कितना भी प्रयास कर लूँ, फिर भी मुझे उतना ही मिलेगा जितना मेरे नसीब में होगा। न मैंने स्वेच्छा से जन्म लिया है और न ही स्वेच्छा से मरूँगा। साँसें भी अपने आप आ-जा रही हैं। जब जीवन की सारी व्यवस्थाएँ अपने आप हैं, तो अन्य व्यवस्थाएँ भी उसी प्रकृति या परमात्मा पर क्यों नहीं छोड़ देते ? यह परम आस्तिकता है कि व्यक्ति ने अपने को प्रकृति या परमात्मा के द्वारा संचालित होने के लिए छोड़ दिया । परमात्मा व्यक्ति को जीवन बाद में देता है, उसकी व्यवस्था पहले कर देता है । स्वयं को उस प्रकृति, उस परमात्मा, उस कर्मनियति के सुपुर्द कर दो, सारी व्यवस्था हो जाएगी। हमारा पुरुषार्थ, हमारा कर्म - योग जीवन को संचालित करने के लिए है; धन, सामग्री, वस्तु, जमीन-जायदाद एकत्रित करने के लिए नहीं। हम अधिक से अधिक देने का प्रयास करें। लोभी आत्मा कभी किसी को कुछ प्रदान नहीं कर सकती। कंजूस व्यक्ति प्रेम के योग्य भी नहीं होता । जो धन नहीं दे सकता, वह हृदय कैसे देगा? जीवन तो लेन-देन का हिसाब है । सिर्फ़ दे-देकर ही काम नहीं चलता, लेना भी पड़ता है। जैसे तुम देकर प्रसन्न होते हो, वैसे ही सामने वाला भी देने की इच्छा रखता है। कोई निर्धन तुम्हारे सहयोग से उन्नति कर गया तो यह न सोचना कि तुमने इसे लखपति बनाया । कभी उसको फोन करना और कहना मित्र, आज तुम्हारी कार भेज देना, मैं भी घूम-फिर आऊँ । इससे उसका हृदय प्रसन्न हो जाएगा। वह सोचेगा मैं उसका ऋणी नहीं, मित्र हूँ, उसने मेरा सहयोग किया, अब मैं भी सहयोग के लिए तत्पर रहूँ। लोभी नहीं दे सकता; अलोभी ही दे सकता है । करुणावन्त, शीलवन्त, प्रेमी हृदय ही लुटा सकता है। जो तुम्हें प्रेम दे रहा है, धन से सहयोग कर रहा है, जान लो वह अलोभी है, लोभमुक्त है। लोभमुक्त होना मुक्ति का प्रथम द्वार है । क्रोध प्रेम को नष्ट करता है, मान विनय को नष्ट करता है और माया मैत्री का नाश करती है, लेकिन लोभ तो सब कुछ नष्ट कर देता है । विनय और मैत्री सभी को लोभ नष्ट कर देता है। स्वयं को लोभ से बाहर निकालें । लोभी आत्मा पूर्ण नहीं हो सकती। यह मन का रोग है, जो सर्वत्र विनाश करता है। इस मनोरोग से मुक्त होने का प्रयास करें । T हम दान न भी करें, सिर्फ एक संकल्प ले लें कि महीने में एक दिन सबसे पहले आने वाले ग्राहक से बिना लाभ-हानि के व्यवसाय करेंगे । है तो साधारण - सा संकल्प, लेकिन जीवन को रूपान्तरित करने वाला, व्यावसायिक बुद्धि को रूपान्तरित करने वाला सूत्र होगा। महीने में एक दिन निर्धारित कर लें, जो ग्राहक सबसे पहले आए, चाहे वह दस लाख का माल खरीदे या दस पैसे का, उसे जिस भाव में वस्तु लाए हो, उसी भाव में प्रदान कर दें । कभी-कभी बिना लाभ के भी कुछ 135 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003882
Book TitleBanna Hai to Bano Arihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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