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________________ कल में नहीं रहोगे। यह सब इतना धीरे-धीरे घटित होता है कि तुम जान ही नहीं पाते। कभी-कभी तो जानकर भी अनजान बने रहते हो। इसी तरह एक दिन जीवन की कहानी समाप्त हो जाती है। सुबह होती है,शाम होती है जिंदगी यूँ ही तमाम होती है। जीवन का सूर्य प्रतिदिन उदित होता है, दोपहर होती है, सांझ ढलती है, रात आती है और यों जीवन की कहानी खत्म हो जाती है, जीवन की इहलीला ही समाप्त हो जाती है। यहाँ सभी कुछ अध्रुव और अशाश्वत हैं। दुख-बहुल है। न धन से, न परिजनों से जीवन बचाया जा सकता है और न ही काम, क्रोध, अहंकार, पद-प्रतिष्ठा से स्वयं को सुखी या शाश्वत किया जा सकता है। हमारा नाम भी अपना नहीं है। यह भी किसी पंडित या माता-पिता का दिया हुआ है। तुम सोचते हो तुम अमुक हो और जीवन भर इस नाम से चिपके रहते हो। तुम मनुष्य बनकर नहीं जीते, इस-उस नाम को जीते हो। कुछ अच्छा काम किया और अपने नाम की घोषणा करवा दी। अरे! यहाँ तो अपना ही पता नहीं है, किस-किस का नाम याद रखें। मंदिर बनवाया। दानदाताओं की लम्बी सूची संगमरमर पर उकेरी गई। दर्शनार्थियों में किसे फुर्सत है कि इसे पढ़े, लेकिन नहीं, नाम तो लिखा ही जाना चाहिए। जिसे अंततः पत्थर ही हो जाना है, वही पत्थरों पर नाम खुदवाता है। हालांकि कोई भी पढ़ता नहीं है, हाँ! खुद ही पढ़कर संतुष्ट होता रहता है। दूसरे भूल से कभी पढ़ भी लें तो जलेंगे, निंदा करेंगे। कहेंगे मैं इसे खूब जानता हूँ सारा धन भ्रष्ट तरीके से कमाया और दान देकर दानदाता बन बैठा। इस दुनिया में न नाम अमर है, न पद अमर है, न प्रतिष्ठा ही सदा बनी रहती है। जीवन ही चला गया, तो पीछे कौन अमर रहता है। मनुष्य काम-भोग से गुजरता है कि शायद इससे सुख मिलेगा। देखता है कि पानी में आटा आया और मछली धोखा खा रही है, हर बार जाल में फंस रही है। आटे के साथ काँटे में उलझ कर पकड़ी जा रही है। आटा आता है मगर काँटे में बिंधकर। पहले-पहल तो बाँधा जाता है,फिर खुद ही बंध जाता है। यह बात जानने के कारण ही कपिल गाता है - इस अध्रुव, अशाश्वत, दुखबहल संसार में ऐसा कौन-सा कर्म है, जिससे मेरी दर्गति न हो! वह प्रश्न उठा रहा है, क्योंकि यहाँ तो तुम जो भी करोगे, प्रतिध्वनित होकर वापस आएगा। गीत गाओगे, गीत मिलेंगे। दुर्वचन कहोगे, दुर्वचन मिलेंगे। यदि जीवन में दुर्व्यवहार किया ही नहीं, तो दुर्व्यवहार आएगा भी नहीं। यहाँ तो प्रतिध्वनि होती है। जैसे जंगल 321 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003882
Book TitleBanna Hai to Bano Arihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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