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________________ लेकिन उसे मिटाने के लिए क्या घर को ही जला देंगे? लड़ाइयों के और भी कुरुक्षेत्र हैं सिर्फ यह जंगल ही नहीं है- जो जिन्दगी तुम्हें मिली है वह खैरियत के लिए है, कल्याण के लिए है। तुम्हारी मेधा, मनीषा, बुद्धि की प्रगति के लिए तुम्हें यह जीवन मिला है। सिर्फ जुनून, उन्माद, विक्षिप्तता में जीवन नष्ट न करो। इस पीड़ा से भरी दुनिया में कुछ ऐसे दीप जलाएँ, ऐसे इन्तज़ाम करें कि इसे कुछ शान्ति का सहारा मिल सके। प्रेम का संबल मिल सके।अहिंसा और करुणा का आधार मिल सके। ___ महावीर कहते हैं- वह युद्ध मैंने लड़ा है। वे निमंत्रण देते हैं कि आओ और लड़ो अपने आप से। एक जंग है जो भीतर लड़ी जा सकती है, यह वह जंग है जिसमें खून-खराबा नहीं होता। यह वह जंग है जिसमें किसी को पराजित नहीं किया जाता बल्कि सारी दुनिया चरणों में स्वतः समर्पित हो जाती है। एक सम्राट तो भय दिखाकर झुकाएगा, पर एक संत की करुणा और प्रेम से तुम स्वयं ही जाकर झुक जाओगे। झुकाया तो क्या झुके, स्वयं ही झुके तो झुकना सच्चा हुआ। महावीर के कानों में कीलें ठोंकी जा रही थीं। वे निश्चल ध्यान में लीन थे। ग्वाले ने कहा- तुम बहरे होने का नाटक करते हो, अभिनय करते हो, लो मैं तुम्हें बहरा ही बना देता हूँ। कानों में कीलें ठुक रही हैं। कहते हैं कि देवों के आसन डोलायमान हो गए, देव दौड़कर चले आए और महावीर से कहा- प्रभु आपकी सुरक्षा का हमें अवसर दें। महावीर ने कहा- मुझे तुम्हारे सहयोग की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। देव बोले - प्रभु यह आपके कानों में कीलें ठोक रहे हैं। महावीर मुस्कराए और बोले- तुम्हें कानों में कीलें ठोकी जाती दिखाई दे रही हैं, लेकिन वे तत्त्व जो इन कीलों को ठोके जाने के बावजूद जाग रहा है, दिखाई नहीं देता। भीतर जो आत्म-विजय, इन्द्रिय-विजय और कषाय-विजय हो रही है, वह विजय तुम्हें दिखाई नहीं देती। तुम्हें तो लग रहा है कि कानों में कीलें ठुक रही हैं, कानों से खून बह रहा है। ये कान आज नहीं तो कल गिरने ही हैं, मगर इस गिरने के मध्य भी कोई तत्त्व है, जो अविजीत रहा है। कान तो मिट्टी हैं और इन्हें मिट्टी ही होना है चाहे बचाया जाए या न बचाया जाए।मगर मिट्टी होने से पहले इस माटी के दीए में ज्योत प्रकट हो रही है, वह जीत रहा है। कानों में कील ठुकवाते वक़्त भी कोई जीत रहा है, विदेह हो रहा है, जीवन-मुक्ति का आनन्द और स्वाद ले रहा है। महावीर का मार्ग भीतर का मार्ग है। इस मार्ग पर चलने के लिए कुछ सूत्र हैं जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिणे एगं जिणेज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ। पंचिंदियाणि कोहं माणं मायं तहेव लोहं च। 24I Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003882
Book TitleBanna Hai to Bano Arihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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