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________________ और सभी जानते हैं सिकंदर गिड़गिड़ाता रहा, लेकिन उसे कोई बचा न सका। मुझसे लोग पूछते हैं- आपको बराबर नींद आती है। मैं बताता हूँ मुझे बड़े चैन की, आराम की नींद आती है। जब सोना चाहूँ नींद ले लेता हूँ और जब तक जागना चाहूँ जागा रहता हूँ। मेरे हृदय पर कोई बोझ नहीं है। किसी दुश्चिता का चक्र नहीं है, आने वाले कल की फिक्र नहीं है। महावीर का मार्ग ऐसे युद्ध का मार्ग है, जिसे मैं अयुद्ध की संज्ञा दूंगा। ऐसी हिंसा का रास्ता है, जिसे मैं अहिंसा का मार्ग कहूँगा। यहाँ वह दृढ़ता है, जो करुणा बनकर आती है। युद्ध तो करना ही है, संघर्ष तो करना ही है पर बाहर किसी पर हथियार चलाकर नहीं, वरन् अपने ही भीतर पड़ी जन्मों-जन्मों की वृत्तियों के साथ युद्ध करना है। जब लड़ना ही है तो एक बार स्वयं से लड़कर भी देख लो। और किन्हीं तलवारों से यह युद्ध नहीं करना है, अपने भीतर के द्वन्द्व से द्वन्द्व करना है। गीता प्रारम्भ होते ही कहती है 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे'- यह कुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्र है। और यह कुरुक्षेत्र कहीं बाहर नहीं, हम सबके भीतर है। आप सोचते होंगे- हजारों वर्ष पहले कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध हो चुका है। वह तो मात्र प्रतीक है। अपने भीतर झाँको, क्षमा और प्रेम के युधिष्ठिर, काम-क्रोधवासना के दुर्योधन हर समय हमारे भीतर सक्रिय रहते हैं। कभी दुर्योधन, तो कभी युधिष्ठिर हावी हो जाता है। कभी सत्य जीतता हुआ मालूम होता है, तो कभी असत्य सत्य पर शासन करता हुआ जान पड़ता है। हमारे भीतर अन्तर-संघर्ष, अन्तर-द्वन्द्व जारी रहता है। पाँच मिनट के लिए भी तुम शांति का संवहन न कर पाओगे कि भीतर युद्ध शुरू हो जाता है। यहाँ तक कि सोए भी हो, तो सपने में युद्ध कर रहे हो, जागे हो, तो विचारों में युद्ध जारी है। साक्षीत्व में ध्यानपूर्वक जीने वाला व्यक्ति, इस भीतर के अन्तर-द्वन्द्व से निर्द्वन्द्व हो जाता है। वह तो चौराहे पर खड़े यातायात नियंत्रित करने वाले सिपाही की तरह तटस्थ हो जाता है। उसे कोई मतलब नहीं यातायात चाहे जिधर से आए या जाए। वह तो चक्की में लगी कील की तरह तटस्थ है। धुरी में लगी हुई कील की तरह जो तटस्थ रहता है, वह चाहे जितना चल - फिर आए तब भी जहाँ होता है वहीं-का-वहीं रहता है। चलने वाला शरीर चलता है,रुकने वाली आत्मा वहीं स्थिर है। गृहस्थ वह नहीं है जो घर में रहता है और संन्यस्त वह नहीं है जिसने दीक्षा ले ली है। गृहस्थ वह है जिसके पाँव तो रुके हैं पर मन बहता रहता है और संन्यासी वह है जिसके पाँव तो चलते हैं पर मन स्थिर है, स्थितप्रज्ञ है। जिसका मन टिक गया है पर पाँव सतत भ्रमण कर रहे हैं वह संत । और गृहस्थ वह जो अपने पाँव एक घर में, एक परिवार में, एक स्थान पर रख चुका है, लेकिन मन दिन-रात दौड़ता रहता है। 22 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003882
Book TitleBanna Hai to Bano Arihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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