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भी भोग है। दिन-रात यही चलता है। मितभाषिता तो मनुष्य के पास है ही नहीं। तुम सोचो, तो पाओगे कि जो बातें कल की थीं वही आज कर रहे हैं। जो आज की हैं वही परसों भी कर रहे थे। बातों का कोई अन्त नहीं है; बातें सिर्फ पुनरावृत्ति हैं।
किसी से मिलते हो, तो तुरन्त पूछते हो- कैसे हो, तबियत तो ठीक है न्? जब तबियत खराब थी तब तो घर पर न गए पूछने के लिए, वहाँ जाकर कुछ सेवा न की और अब बातें बना रहे हो।
एक गंजे मित्र को देखकर दूसरे ने पूछा- भाई, गंजे कैसे हो गए? उसने बताया- जीभ के कारण गंजा हो गया।
यह तो बड़े ताज्जुब की बात है। मैंने तो आज तक ऐसा नहीं सुना कि जीभ के कारण व्यक्ति के सिर के बाल उड़ते हों- पहले ने कहा।
गंजे ने कहा- बात यह है कि जीभ चलती रही और सिर पर जूते पड़ते रहे।
अपनी भाषा पर, वाणी पर संयम तो होना ही चाहिए । मनुष्य भोगों में रत है;. सोचता है सुख मिलता है। पर क्या सुख मिलता है? जितनी बार सुख पाया उतना ही प्रायश्चित भी किया कि आज अनर्थ हो गया कि बहुत जलन हुई, कि आज बहुत तकलीफ हुई और आने वाले कल में इस गलती को पुनः नहीं दोहराऊँगा। लेकिन आज आते ही कल की बात भूल जाते हो और फिर वही करने लगते हो।खुजलाने से भला कभी खुजली का रोग ठीक हुआ है? वह तो बढ़ेगा ही। सब क्षणिक उत्तेजनाएँ हैं। यह उत्तेजना शरीर की ऊर्जा के क्षीण हो जाने से शिथिल हो जाती है और व्यक्ति सोचता है- मैंने सुख-शान्ति पाई। नहीं! तुमने न सुख पाया, न शान्ति पाई, उत्तेजना का तो तापमान ऊपर चढ़ा था वह नीचे आ गया; न सुख मिला, न शान्ति, सिर्फ उत्तेजना बह गई।
सूत्र कहता है- ऐसा व्यक्ति मृत्यु आने पर शोक करेगा, लेकिन मैं तो जीवन का यथार्थ जान रहा हूँ कि व्यक्ति जीवन-भर ही शोक करता है। बार-बार मिलकर बातें करके या गले लगकर सिर्फ अपने शोक को भुलाया करता है। शोक, पीड़ा, दुख तो विद्यमान रहते हैं, वह उन्हें केवल भुलाता है।
भारतीय मनीषा तो कहती है कि व्यक्ति दाम्पत्य-जीवन का उपयोग सिर्फ संतानोत्पत्ति के लिए करे ताकि वृद्धावस्था में वह संतान माता-पिता का सहारा बन सके, लेकिन ऐसा नहीं होता। सुकरात ने तो कहा कि वह व्यक्ति धन्य है जो जीवन में कभी दाम्पत्य का सेवन नहीं करता, पर यह भी संभव नहीं। तब कहा गया कि वर्ष में एक बार विषय सेवन किया जाए। तदुपरान्त मास में एक बार की छूट दी गई कि वह माफ किया जा सकता है। उसे पशुता से कुछ ऊपर रखा जाएगा, पशु के स्तर से
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