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दोनों के चेहरों पर उदासी आ जाती है। उनके अन्तर्मन में उदासी घिर जाती है। जैसे महल गिरने पर शहर भर में कोहराम मच जाता है, ऐसे ही ताश का घर गिर जाए, तो बच्चे कोहराम मचा देते हैं। यहाँ ज्ञान का ही अंतर है। असली ज्ञान वही है जो जीवन में बदलाव लाता है। वास्तविक विचार तो वही होता है जो जीवन में विराग ले आए। सही चिन्तन वही होता है जो चेतना को जगा सके, विवेक की दृष्टि दे सके।सुनना तभी सम्यक् श्रवण हो पाता है जब वो हमारे जीवन में सम्यक् दृष्टि की आधारशिला बन जाए। यदि ऐसा नहीं होता तो आदमी का ज्ञान केवल किताबी ज्ञान बन कर रह जाता है। सारा ज्ञान बाँचा हुआ ज्ञान होता है, केवल सूचनाओं का संग्रह भर होता है।
ज्ञान का सीधा-सा फार्मूला यही है कि आप केवल नक्शे के दर्शन कर हिमालय की यात्रा का लाभ नहीं उठा सकते। नक्शा देखने से केवल हिमालय पर जाने के मार्ग का पता जाना जा सकता है। आनंद तो तभी आएगा, जब आप स्वयं हिमालय की यात्रा करेंगे। ऐसा आनंद और ज्ञान ही जीवन का वास्तविक आनंद और ज्ञान होगा। किताबों को पढ़ कर पाया गया ज्ञान हमें कर्म करने के लिए प्रेरित कर सकता है। एक ज्ञान तो वह होता है जो हमें किसी मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है
और एक ज्ञान वह होता है जो किसी मार्ग पर चलने से निष्कर्ष रूप में प्राप्त होता है। वही असली ज्ञान होता है।
हमारा जो ज्ञान, हमें ज्ञान व विज्ञान की ओर प्रेरित कर दे, वो ज्ञान मनुष्य को मुक्ति देता है और जो ज्ञान हमें कर्म की ओर प्रेरित करे,वो ज्ञान हमें सुजन की ओर ले जाता है। बाहर से लिया गया ज्ञान, संसार की आधारशिला हो जाता है और भीतर से निष्पन्न हुआ ज्ञान, मुक्ति का मार्ग हो जाता है।
बौद्धिक ज्ञान जीवन के साधनों को संचालित करने के लिए है और आत्मिक ज्ञान व्यवहार व निश्चय, दोनों ही विरोधाभासों से अपने आपको मुक्त करने के लिए है। ज्ञान तो मनुष्य के पास है, लेकिन मनुष्य उस ज्ञान के अनुरूप आचरण नहीं करता, क्योंकि यह ज्ञान आरोपित है, उधार का है। बाहर से अर्जित है। जैसे कोई बाँझ स्त्री किसी बच्चे को गोद ले लेती है, ऐसे ही हमने ज्ञान को भी गोद ले लिया है। इसका नतीजा यह हुआ कि मनुष्य को इस बात का तो ज्ञान है कि क्रोध करना बुरा है, मगर आदमी इस ज्ञान को अपने आचरण में नहीं उतार पाता। अगर कुम्हार को घड़े बनाने का ज्ञान है तो वह भी चौबीस घंटे तो घड़े नहीं बनाता। सोने के वक़्त सोना भी पड़ता है। लेकिन जो ज्ञान अपने ही अन्तर्जगत से अनुस्यूत होता है, अपनी ही अन्तर-आत्मा से विकसित होता है, मनुष्य उस ज्ञान को चौबीस घंटे जी सकता है, क्योंकि आत्मज्ञानी चौबीसों घंटे चैतन्य रहता है, जागृत रहता है। सोए, तब भी जागा
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