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यह भिक्षुक का काम है और मेरी प्रेरणा भिक्षुक होने की नहीं भिक्षु होने की है।
राग से ऊपर उठो, संयम में तत्पर बनो, आस्रव से विरत हो जाओ और अपने समान ही औरों को देखने का प्रयास करो। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना से अभिभूत हो चलो और किसी भी वस्तु के प्रति अपनी आसक्ति मत रखो। ऐसा होने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से ज्ञानियों की दृष्टि में भिक्षु है, संत है। मैं भी यही कहना चाहूँगा कि अगर आप राग से ऊपर उठ सकें, वस्तुओं के प्रति अपनी आसक्ति को निर्मूल्य कर सकें, अपने कामास्रवों को, अपने भावास्रवों को, अपने दृष्टास्रवों को, अपने अविद्यास्रवों को अगर कम कर सकें तो भिक्षु होने के संत होने के, प्रथम चरण में प्रवेश हो ही गया समझो। हर किसी को अपने समान देखने का प्रयास करो, जानो कि जैसा मैं हूँ वैसा ही दूसरा भी है अगर तुम जान रहे हो कि तुम आत्मा हो तो दूसरों में भी आत्मा देखने का प्रयास करो।अगर स्वयं में प्रभु और परमात्मा दिखाई दे रहा है तो औरों में भी प्रभु और परमात्मा देखने का प्रयास करो।
सबसे प्रेम करो, सबकी सेवा करो, सबमें प्रभु के दर्शन करो।मेरा यही संदेश है कि सबसे प्रेम करो। यह मेरा पहला सूत्र है, दूसरा सूत्र है सबकी सेवा करो और तीसरा सूत्र सब में प्रभु दर्शन करो। ये तीनों सूत्र अध्यात्म-सूत्र हैं। ये तीनों सूत्र आपका जीवन बदल देंगे। आपके जीवन को ऊँचा उठाएँगे और तब आपका बाह्य रूप कुछ भी हो अन्दर से आप संत होंगे, भिक्षु होंगे।
हमें विषयों से अनासक्त होकर मुक्तिलाभ के लिए कृत-संकल्प होना चाहिए। आत्मा को साधु बनाना है तो पहला काम है निर्भय बनो। न कभी किसी से डरो और न ही सम्मान और प्रतिष्ठा से इतराओ। अमीर-गरीब के भेद से ऊपर उठो। मुक्त मन से जीओ।वह व्यक्ति भिक्षु है जो निरन्तर एकरस अपनी साधना में, मस्ती में स्व की खोज में लगा रहता है। आत्मलक्ष्य की दिशा में मंगलयात्रा हो, यही अभीष्ट है, यही भिक्षुत्व है,यही मुक्ति की ओर उड़ान है।
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