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________________ गत युग की याद दिलाते हो, था दुर्ग तुम्हारा वह उन्नत, प्रासाद दुर्ग में वृहत्, और उसमें वह पिंजर स्वर्णावृत, पर वे प्रतीक थे बंधन के आडम्बर गर्व प्रलोभन के, मैंने तो लक्ष्य बनाए थे कुछ और दूसरे जीवन के, अरमान विकल थे यौवन के तन बन्दी था मन था उन्मन, तुम रखो स्वर्ण पिंजर अपना, अब मेरा पथ तो मुक्त गगन। मनुष्य का अंतिम पथ तो निर्वाण ही है, मुक्ति ही है, मोक्ष और आत्म-स्वतंत्रता ही है। जब कोई दूर खड़ा रहकर तुम्हें पुकारता है तो यह स्वर्ण-पिंजरे का आमंत्रण है। और हमारा मन आज ही नहीं जन्मों-जन्मों से सोने के पिंजरे में बार-बार आने का आमंत्रण देता है। जिसे यह बोध हो गया कि क्या सोने का पिंजरा, क्या लोहे का पिंजरा, पिंजरा तो पिंजरा है, उसी दिन वह हर बंधन को अस्वीकार कर देगा। लोहे के पिंजरे ही नहीं सोने के पिंजरे भी छोड़ दिये जाते हैं। ऐसा नहीं कि गोशालक ही त्याग करता है, महावीर और बुद्ध जैसे लोग भी त्याग करके निकल ही जाते हैं। परिग्रह का संबंध न रखने से है, न त्यागने से है। परिग्रह तो एक छोटी-सी मुखवस्त्रिका और चिमटा के प्रति भी हो सकता है अन्यथा राजा जनक भी अपरिग्रही हो सकते हैं जिन्हें पूरे राज्य के प्रति आसक्ति और ममत्व नहीं होता। आसक्ति तो एक डंडे, एक लकड़ी से भी हो सकती है और अनासक्ति हो तो सम्पूर्ण राजवैभव भी विचलित नहीं कर पाता। वस्तु जब तक अपना मूल्य बनाए रखती है, तभी तक व्यक्ति संसार में रहता है और जिस दिन व्यक्ति की नजरों में वस्तु से अधिक स्वयं का मूल्य हो जाता है, उस दिन वस्तु झूठी हो जाती है। जीवन में अनचाहे ही संन्यास घटित हो जाता है। वेशपरिवर्तन भले ही न हो, हम विरक्त हो ही जाते हैं । राग-द्वेष की चीनी दीवारें ढह ही जाती हैं । वीतद्वेष होने के लिए किसी प्रक्रिया से नहीं गुजरना होता, वीतरागता किसी साँचे में ढलकर नहीं आती। मूर्छा और परिग्रह-बुद्धि के शिथिल होते ही वीतरागता अंकुरित होने लगती है। तुम अस्सी वर्ष के होकर भी पत्नी से नहीं छूट पाते और महावीर से पच्चीस वर्ष की उम्र में पत्नी छूट जाती है। क्यों? क्योंकि जान ही लिया कि दाम्पत्य-जीवन सिर्फ खिलवाड़ है। मन का खेल है, काया से काया की आँख-मिचौली है। जब तक मनुष्य देहभाव बनाये रखता है तब तक काया से काया का खिलवाड़ होता है। जिस दिन देह और आत्मा के अलग होने का ज्ञान हो जाता है, मैं अलग और मुझसे जुड़ी यह काया अलग, जब यह अंकुरण होता है, उसी अंकुरण का नाम है दीक्षा, संन्यास, 1021 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003882
Book TitleBanna Hai to Bano Arihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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