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अपने शत्रु के हाथ में तलवार देखकर ब्रह्मदत्त काँप गया और क्षमा माँगने लगा। उसने कहा- 'मुझे क्षमा कर दो। मैं चाहता हूँ कि हम अपने वैर विरोध की भावना को यही समाप्त कर दें और परस्पर मैत्री के भाव स्थापित करें। तब ब्रह्मदत्त ने अपनी पुत्री का विवाह दीर्घायु के साथ कर दिया और दहेज में कोशल का राज्य वापस दे दिया।
याद रखने की बात है कि प्रतिशोध और वैर से महान् क्षमा होती है और वैभव से ज्यादा महान् त्याग होता है। यह जीवन का अटल सत्य है जो सनातन है। यह कृष्ण, महावीर, बुद्ध, मोहम्मद, जीसस के समय जितना सत्य था आज भी उतना ही सत्य है हम सबके लिये। जीवन में से प्रतिशोध का नाला हटाएँ और प्रेम की गंगा-यमुना बहाएँ। एक बार व्यक्ति प्रेम में जीकर देखे तो उसे पता लगेगा कि प्रेम में जीने का क्या आनन्द और मजा है। प्रेम प्रभावी तो कौन हावी!
औरों के वचनों से मन को प्रभावित न करें, औरों की टिप्पणी से मन को कुंठित न करें, अपने मन को विचलित न करें। बुद्ध किसी गाँव से जा रहे थे। गाँव के लोगों ने उनकी बहुत निंदा की, अपशब्द कहे। गाँव वाले जितना बुरा बोल सकते थे, बोले। जब वे चुप हो गए तो बुद्ध ने कहा - 'क्या अब मैं अगले गाँव चला जाऊँ?' लोग दंग रह गये कि हमने इन्हें इतना भला-बुरा कहा और ये जरा भी प्रभावित नहीं हुए बल्कि मधुर मुस्कान से पूछ रहे हैं कि क्या मैं अगले गाँव चला जाऊँ? लोगों ने पूछा, 'हमारी गालियों का क्या हुआ?'
बुद्ध ने कहा – 'मैं जब पिछले गाँव में था तो लोग मेरे पास मिठाइयाँ लेकर आए थे। उन्होंने मुझे मिठाइयाँ देने की बहुत कोशिश की और तरहतरह के प्रयास भी किये लेकिन मैंने किसी की मिठाई स्वीकार नहीं की। आप मुझे बताएं कि वे मिठाइयाँ फिर किसके पास रहीं? लोगों ने कहा- 'यह तो बच्चा भी बता देगा कि मिठाइयाँ उन्हीं के पास रहीं।' बुद्ध ने कहा- 'तुम्हारी बात तुम्हें मुबारक! पीछे के गाँव वालों ने मिठाइयाँ दी, मैंने वे नहीं ली अत: वे उन्हीं के पास रहीं, वैसे ही आप लोगों ने मुझे गालियाँ दी और मैंने नहीं ली तो आप लोगों की चीज आप ही के पास रह गई।'
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