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भीतर दो तरह के जल-प्रपात बनते हैं, उनमें से एक है संक्लेश का और दूसरा है शांति का। जब चित्त की संक्लेशयुक्त स्थिति होती है, तो व्यक्ति क्रोधित, खिन्न, उग्र अथवा उदास हो जाता है, वहीं चेतना की शांत-सरल स्थिति में कोमलता, मधुरता और प्रसन्नता की फुलवारी खिली हुई रहती है। क्लेश-संक्लेश की स्थिति अस्वस्थ चित्त का परिणाम है, वहीं शांत-ऋजु हृदय स्वस्थ चित्त का। हमारे भीतर क्लेश-संक्लेश किस स्तर तक चलता है, यह जानने के लिए
आप एक छोटा-सा प्रयोग करें। किसी शांत-एकांत स्थान में बैठकर कम-से-कम दस मिनट तक अपनी श्वास की स्थिति का निरीक्षण करें कि वह संतुलित है या असंतुलित, लयबद्ध है या अव्यवस्थित । एक स्वस्थ व्यक्ति एक मिनट में 13-14 श्वास ग्रहण करता है। यदि यह मात्रा इससे ज्यादा है, तो मान लो चित्त की स्थिति अव्यवस्थित है; क्लेश-संक्लेशयुक्त परमाणुओं का ज्यादा जोर है। इस स्थिति को सुधारने के लिए आप संबोधि-ध्यान का एक छोटा-सा प्रयोग करें : पहले दस मिनट तक मंद गति के गहरे श्वास-प्रश्वास पर अपने चित्त को स्थिर और एकाग्र करें। अगले दस मिनट में शरीर की अंतर्यात्रा करें और प्रज्ञापूर्वक यह देखें कि शरीर के किस अवयव में कैसी अनुकूल या प्रतिकूल संवेदनाएं उठ रही हैं। हम अपने ध्यान और चेतना को वहां केंद्रित करें। हम वहां तब तक टिकें, जब तक उस संवेदना से उपरत न हो जाएं। हम इस प्रक्रिया के तीसरे चरण में अपने मनोमस्तिष्क का निरीक्षण करें और वहां चित्त में उठ रहे किसी भी प्रकार के क्लेश-संक्लेशयुक्त संस्कार के द्रष्टा बनें। भीतर जो भी उठे, उसके प्रति बुरे-भले का कोई भी भाव न हो। हम उसे केवल बोधपूर्वक देखने वाले बनें। आप ताज्जुब करेंगे कि हम जैसे संवेदनाओं से उपरत हुए, ऐसे ही चित्त के संक्लेश-संस्कार से भी उपरत होते जा रहे हैं और इस तरह सहज ही हम अपने चित्त के विकृत परमाणुओं से मुक्त होते जा रहे हैं।
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