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करवा देंगे। संस्कार जीवन की नींव है, जीने की संस्कृति है। यही व्यक्ति की मर्यादा और गरिमा है। संस्कारों ने व्यक्ति को, जाति और समाज को सदा सुखी ही किया है। जो अपनी पीढ़ी को सम्यक् संस्कारों का स्वामी नहीं बना पाते हैं, उन्हें अन्ततः पछताना ही पड़ा है।
पूर्व जन्म की संस्कार-धारा
व्यक्ति का संस्कारों के साथ ऐसा संबंध है, जैसा जल का जमीन के साथ। व्यक्ति के कुछ संस्कार तो उसके अपने होते हैं, लेकिन जब हम जीवन को उसकी गहराई तक जाकर देखते हैं, तो यह सत्यबोध होता है कि हर व्यक्ति अन्ततः संस्कारों का ही एक स्थाई रूप है। उसका जीवन एक जन्म का नहीं, जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों का परिणाम है। आज इस जीवन में आदमी जो कुछ करता है, सब कुछ उसी का चाहा और चीन्हा नहीं होता। उसके भीतर इस जन्म के और पूर्व जन्म के संस्कारों का एक प्रवाह गतिशील रहता है। वर्तमान में हम जो कुछ अच्छा-बुरा करते हैं, उनके पीछे पूर्वगत संस्कारों की एक बहुत बड़ी भूमिका रहती है। कोई यदि पूछे कि व्यक्ति के पीछे कौन रहता है, तो मेरा जवाब होगा-उसके अपने संस्कार । पूर्व जन्मों के संस्कार, इस जन्म के संस्कार, परिवार-जाति-धर्म और समाज के संस्कार, उसके चित्त के संस्कार, उसके तन-मन के धर्मों का संस्कार, उसके माता-पिता का संस्कार । कहते हैं कि व्यक्ति पर उसकी सात पीढ़ी तक का असर होता है। माता-पिता के संस्कार तो आनुवंशिक रूप में उसके साथ रहते ही हैं, उसके दादा-दादी, नाना-नानी और कई बार तो पाया गया है कि उसके पड़-दादा-दादी, लड़-दादा-दादी, पड़-नाना-नानी और लड़-नाना-नानी तक का संस्कार व्यक्ति में मुखरित हो जाता है। यह सब वास्तव में संस्कारों की आनुवंशिकता है। माना कि हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी से पोषित होने वाले संस्कारों को तत्काल नहीं बदल सकते, लेकिन हां, अपनी सजगता और संकल्प-शक्ति से उन पर नियंत्रण तो कर ही सकते हैं। देर-सबेर हम उन पर आत्मविजय प्राप्त कर
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