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________________ सच्चा और आनंदमय जीवन वही है, जो मनोविकारों और कष्टों से संत्रस्त न हो। त्याग, अंतर्मन की विकृतियों का मैं त्याग का संबंध किसी व्रत-उपवास से नहीं जोड़ रहा हूं किसी वस्तु और व्यक्ति के त्याग की बात भी नहीं कर रहा। बाहरी वस्तुओं के उपभोग पर संयम रखना तो अच्छी बात है। मैं आत्मिक और आंतरिक त्याग की बात कर रहा हूं। आत्मत्याग के बिना आत्मज्ञान संभव ही नहीं होता। जो व्यक्ति अपने जीवन की आध्यात्मिक उन्नति चाहता है, उसे अंततः आंतरिक त्याग की शरण में ही आना होगा। आंतरिक त्याग का अभिप्राय है-अंतर्मन में पलने वाली विकृतियों, बुराइयों और पापों का त्याग। जीवन में जो कुछ भी गलत है, उसका त्याग होना ही हितकर है। हमें अच्छाई और भलाई का त्याग नहीं करना है। वे तो जीवन में खिले हुए सदाबहार फूल हैं। त्याग तो हमें उन मनोविकारों का करना है, जो जीवन-विकास के रोड़े और कांटे बने हुए हैं। जीवन की बुराइयों को त्यागने में भला कौन-सी बुराई है। जीवन में वह काम कतई नहीं किया जाना चाहिए कि जिससे स्वयं का अहित हो। अपनी बुराइयों को त्यागना क्या अहितकारी है? अपने पापों को त्यागना क्या अमंगलकारी है? हमें अपने किसी भी मानसिक विकार का त्याग करते समय भले ही शुरुआत में बेचैनी हो, पर यह त्याग जब अपना परिणाम देगा, तो वह हमारे लिए जीवन का अमृत-वरदान बन जाएगा। जो शराब पीते हैं, मैं उनसे कहूंगा कि वे शराब का त्याग करें; जो गुंडागर्दी करते हैं, मैं उनसे उनके आवारापन के त्याग की बात कहूंगा; जो कंजूस हैं, उनके लिए लालसाओं को त्यागने की बात होगी। यह त्याग भले ही शुरुआत में कठिन और कष्टकर लगे, पर जरा आप ही मुझे बताइए कि शराब पीने से कितनों का हित सधता है और कितनों का अहित होता है? कोई व्यक्ति यह नहीं चाहता कि वह किसी शराबी बाप का बेटा कहलाए। 66 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003877
Book TitleJiye to Aise Jiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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