________________
आनंदमय जीवन का मालिक होना चाहिए, जिसे मानवीय मन के विकार और दुःख विचलित और बाधित न कर सकें। क्या आप जानना चाहेंगे कि जीवन से उसकी खामियों को दूर हटाने का नाम क्या है? इसे आम भाषा में 'त्याग' का नाम दिया जाता है। त्याग जीवन को स्वच्छ और स्वस्थ करने का अमृत तरीका है। भारतीय संस्कृति तो त्याग की महिमा से भरी हुई है। आप संसार के चाहे जिस कोने में चले जाएं, आपको त्याग से बढ़कर अन्य किसी की गरिमा देखने को नहीं मिलेगी। अपनी ओर से त्याग का पथ अपनाने के कारण ही दुनिया में संत-महात्माओं की इतनी पूजा होती है। माना कि किसी राष्ट्रपति या सम्राट का वैभव अतुलनीय होता होगा, लेकिन जब वही किसी संत के समक्ष उपस्थित होता है, तो अनायास नत-मस्तक हो जाता है। उसे लगता है कि नहीं, यह मुझसे ज्यादा श्रेष्ठ और महान् है, क्योंकि इसने अपने जीवन में कुछ त्यागा है। भोग कितना भी महान् क्यों न हो, त्याग के आगे तो बालक ही रहेगा। संसार का त्याग करके स्वयं को स्वस्ति-मुक्ति के लिए समर्पित करना, संन्यस्त जीवन अंगीकार करना आम आदमी के लिए संभव नहीं है। आम आदमी की यह कमजोरी और मजबूरी है कि वह संत-जीवन को प्रणाम कर सकता है, पर उसे अंगीकार नहीं। हर आदमी संत बन जाए, यह संभव भी नहीं। मैं जिस त्याग की बात कर रहा हूं, उसका संबंध किसी साधु-संत के संन्यास से नहीं, वरन् जीवन के रूपांतरण से है, जीवन में घर कर चुकी कमियों और गलतियों को हटाने से है। माना कि हर व्यक्ति संन्यासी नहीं हो सकता, पर हर व्यक्ति अपने हृदय को तो सही और साधु बना सकता है। हृदय में साधुता का आत्मसात् होना साधुता का वह व्यावहारिक रूप है, जिसे कि हम घर-गृहस्थी और संसार में रहकर प्राप्त कर सकते हैं। इस अर्थ में हर व्यक्ति को संन्यासी होना चाहिए। संन्यास का मतलब संसार से पलायन नहीं, वरन् अपने मन में पलने वाली विकृतियों, बुराइयों और अंध-विश्वासों का त्याग करने में है।
65
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org