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________________ मूलमंत्र है। बोध को हम सरल भाषा में 'समझ' कहेंगे, अनुभव भी । सम्यक् बोध और सजगता - दोनों मानो एक-दूसरे के पर्याय हैं । यदि कोई व्यक्ति बोध और प्रज्ञापूर्वक स्वयं के जीवन को देखे और तदनुसार जीने की कोशिश करे, तो वह जीवन की उच्चतर स्थिति को जी सकेगा । जीवन के अमृत रूपांतरण के लिए जहां संबोधि - ध्यान के प्रयोग वरदान साबित होंगे, वहीं स्वयं के नियमित जीवन को ध्यानपूर्वक, सजगता और बोधपूर्वक संपादित करना संबोधि - साधना के ही सहज सहायक मंगल चरण हैं । संबोधि - ध्यान से आंतरिक उपचार संबोधि-ध्यान जहां हमें शरीर की संवेदनाओं, उसके गुणधर्मों, चित्त के वृत्ति - संस्कारों से शनैः-शनैः उपरत करता चला जाता है, वहीं शरीर में समाहित सूक्ष्म - विशिष्ट शक्ति का जागरण और ऊर्ध्वारोहण करता है, व्यक्ति के उन आंतरिक विशिष्ट केंद्रों को सक्रिय करता है, जो हमारे तन-मन और बुद्धि-तत्त्व को हमारे अनुकूल, स्वस्थ और स्वस्तिकर बनाते हैं। संबोधि-ध्यान जहां हमारे शरीर में घर कर चुके असाध्य रोगों को भी अपनी चैतसिक तरंगों के द्वारा काटने की कोशिश करता है, वहीं व्यक्ति को अंततः अनंत ब्रह्मांड में व्याप्त पराशक्ति या परमशक्ति से संबद्ध करता है, जो कि जीवन का एक उच्च लक्ष्य है । संबोधि-ध्यान का एक बेहतरीन प्रयोग है - साक्षी - ध्यान । स्वयं की सजगता ही इस ध्यान-प्रयोग की मूल चाबी है । 'साक्षी' शब्द का सहज अर्थ है - द्रष्टा, मात्र देखने वाला । शरीर, विचार और भाव - दशा - इनकी जो-जैसी स्थिति है, उसे सहज अंतर्दृष्टिपूर्वक देखना और स्वयं की हर विपरीत आंतरिक विकृति और संवेदना पर अपनी चैतन्यधर्मी किरणों को वहां तक प्रवाहित करना, ताकि उन विपरीत गुणधर्मों की स्वयमेव चिकित्सा हो सके, उनका जीवनदायी रूपांतरण हो सके, यही साक्षी - ध्यान की मूल - दृष्टि है, यही मूल वस्तु । Jain Education International 122 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003877
Book TitleJiye to Aise Jiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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