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स्वभाव बदलें, सौम्यता लाएँ
तपस्या कहेंगे ? आदमी उपवास करे और पूछने के लिए आए कि साहब कच्चा पानी पी लिया तो क्या दण्ड होगा, पर कितनी बार गुस्सा किया इसके लिए क्या दंड होगा, इस पर कोई ध्यान नहीं देता है।
____धर्म के नियम, कायदे-कानून तो हमने ले लिए हैं। धर्म के जो शाश्वत मूल्य थे, जो स्प्रीच्युल ट्रुथ था, हमने उसको दरकिनार कर दिया। सहजता, सरलता, सत्य, निष्ठा, पवित्रता ये सब तो हमारे जीवन से चले गए, मात्र छोटे-मोटे झोली-डंडों की बातों को लेकर बैठे हैं और आपस में लड़ते-झगड़ते हैं। मैं नहीं समझ पाता हूँ कि हम जिसे धर्म समझ कर धर्म करते हैं या धर्म की उपमा देते हैं, उस धर्म को करके आदमी कितना बदलता होगा? धर्म तो वह है जो आदमी के स्वभाव पर असर दिखाए और उसके स्वभाव को बदल डाले। बन गए महाराज, क्या फर्क पड़ता है और नाम रख लिया शांतिसागर जी ? शांतिसागर जी चल रहे हैं और किसी का पाँव थोड़ी देर के लिए ऊपर आ भी गया तो शांतिसागर जी दो मिनट में अशांतिसागर जी हो जाते हैं। कह देते हैं, 'अंधा है क्या ? देख कर नहीं चल सकता।' ___हमारे भीतर इतनी भी शांति न रही। आदमी को निरपेक्ष रहना चाहिए। उसे थोड़ा तो शांत रहना चाहिए। थोड़ा तो धीरज रखना चाहिए। उसमें कुछ तो सहनशीलता हो। कोई कुछ भी करे, हमें उससे क्या ? शांति तो चित्त में होती है, व्यक्ति के स्वभाव में होती है। हम साधु भी बन जाएँ और अपने स्वभाव को शांत न कर पाएँ तो मैं पूछना चाहूँगा कि साधुता किसे कहते हैं, पहले यह तो समझ लें।
साधु बनना जरूरी नहीं है अपितु साधुता को पहले समझना जरूरी है, फिर उसे जीना सीखना है। जिसने साधुता को जीने की मानसिकता बना ली है, वह तो साधु-पुरुष स्वत: ही बन गया।
बात-बात पर चिड़चिड़ाना, बात-बात पर विकृत मुखमुद्रा कर लेना, बात-बात पर खीझ जाना, क्या यही हमारी धार्मिकता है ? हमने क्या सामायिक की, कौन-सी समता की आराधना की ? कौन-सी साधुता, कौन-सा श्रावकत्व,
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