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आशा के दो दीप जलाएँ
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मन में सतत रहने वाली चिंताएँ व्यक्ति का पहला बोझ है। तुम चिंता से बाहर निकलो। चिंता आदमी के जीवन को वैसे ही चाट जाती है जैसे भ्रष्टाचार किसी देश को तथा आतंकवाद पूरे विश्व को। तुम प्रकृति पर विश्वास करो। प्रकृति की व्यवस्था पर आस्था रखो। जन्म भी प्रकृति की ही व्यवस्था का एक चरण है और मृत्यु भी ! संयोग-वियोग, हानि-लाभ, सबके पीछे प्रकृति की व्यवस्था-शैली काम कर रही है। यहाँ तक कि हमारी भाग्यरेखा तथा ग्रहगोचर के पीछे भी प्रकृति की शक्ति ही काम कर रही है।
जो प्रकृति को, उसके गुणधर्म को धैर्यपूर्वक समझ लेता है, वह चिंता और जीवन की उठापटक से आंदोलित नहीं होता। यदि प्रकृति पर विश्वास करोगे तो प्रकृति भी तुम्हें सहयोग देगी और तुम्हारे लिए रास्ता खोलेगी। सूरज आज पश्चिम में डूब गया तो क्या हुआ ! धीरज धरो। प्रकृति पूरब की गोद में फिर सूरज का उपहार भर देगी।
जो व्यक्ति प्रकृति के जितना करीब रहता है, वह उतना ही सहज और चिंतामुक्त जीवन जी लेता है। मैं आपको अपनी विचारधारा और मानसिकता को प्रकृति के अनुरूप बनाने की प्रेरणा दूंगा। मैं सुखी हूँ इसलिए कि मैं प्रकृति का पुजारी हूँ। प्रकृति मेरा हिस्सा है और मैं प्रकृति का। भला, जब जन्म उसी ने दिया है तो मृत्यु भी उसी के दिये आएगी। दोनों ही जब इतने सहज हैं तो जीवन को फिर हम असहज क्यों बनाएँ ? असहजता व्यक्ति को प्रपंची बनाती है और अन्तरमन का अन्तरद्वन्द्व देती है। तुम निश्चितता का कमल खिलाओ। तन-मन से तथा उसके गुणधर्मों से सदा कमल की तरह ऊपर उठने की, ऊपर खिलने की, ऊपर जीने की अलख जगाओ।
तुम चिंता नहीं, चिंतन करो। चिंता अतीत की होती है और चिंतन वर्तमान का होता है। चिंतन का तो परिणाम निकलता है किन्तु चिंता स्वास्थ्य को, शरीर को खत्म कर देती है। चिंतन से समाधान होता है. चिंता मानसिक अवसाद देती है। चिंता का परिणाम घुटन, तनाव और अनिद्रा है। चिंता ऐसा लगता है जैसे किसी ने जीते जी चिता में डाल दिया हो। कहने को तो मात्र एक बिन्दु का ही फर्क है लेकिन यथार्थ में कोई फर्क नहीं है, क्योंकि आदमी दोनों में
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