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जो ध्यान से जीयेगा वह अंतर्बोध से जीयेगा। ध्यान का मार्ग उनके लिए है, जो देह और मन के पार स्थित सत्ता के प्रति निष्ठाशील हैं। मन के पार जो सत्ता है उसकी ओर उठने वाली अंतर्दृष्टि ही ध्यान है। ध्यान चैतन्य-स्वरूप के प्रति सजग होने का उपाय है। हम ध्यान के मार्ग पर आएँ, ध्यान को आत्मसात् करें, हम शांत मन के स्वामी तो होंगे ही, बुद्धि से बढ़कर उच्च प्रज्ञा के प्रकाश के अधिपति भी होंगे। जीवन में अद्भुत सुख, शांति और सौंदर्य होगा।
ध्यान योग : विधि और वचन ग्रंथ की यही भूमिका है और यही उपसंहार भी। ध्यान की चेतना को उपलब्ध करने के लिए, ध्यान की समझ को आत्मसात् करने के लिए, ध्यान का गुर तलाशने के लिए प्रस्तुत ग्रंथ अपने आप में जीवन-साधना का राजद्वार है। अगर कोई पूछे कि साधना के पथ पर गुरु का सहयोग न मिले तो मुझे किसका सहयोग लेना चाहिए। मेरा सुझाव होगा कृपया आप यह ग्रंथ अपने साथ रखें, इसे पढ़ें, पचाएँ। साधना का पथ वैसे ही प्रशस्त होता जाएगा जैसे मंजिल की ओर बढ़ते हुए राहगीर के हाथ में कंदील हो । प्रस्तुत ग्रंथ साधना पथ का मील का पत्थर है। संबोधि ध्यान की समझ को आम लोगों के समक्ष रखने में प्रस्तुत ग्रंथ सहकारी और अमृतोपम है।
समादरणीय संतप्रवर महोपाध्याय श्री ललितप्रभ सागर जी आत्म-श्रेयस् के साथ विश्व-श्रेयस् की ओर अग्रसर हैं। उनकी अमृत सेवाओं के लिए समाज तो ऋणी है ही, अध्यात्म के उन्मुक्त क्षितिज भी उनका अभिनंदन करते रहेंगे। उन्होंने अपने प्रभावी उद्बोधनों से जन-जन को लाभान्वित और रूपांतरित किया है। उनकी सौम्यता, सरलता और ओजस्विता साधक को उनके साथ एकाकार कर देती है। असली श्रद्धा और रसमयता तभी जन्म लेती है जब जीवन समर्पित करने वाले को गुरुजन अपने साथ ठीक वैसे ही एकाकार कर लेते हैं जैसे भगवान की ओर से भक्त मीरा, सूर और चैतन्य।
ग्रंथ में संबोधि-ध्यान-शिविर के विधि-प्रयोग भी सम्मिलित हैं। इससे ग्रंथ की उपयोगिता और बढ़ी है। हम सभी चेतना के स्वामी और जीवन मंदिर के देवता हों, इसी सद्भावना के साथ ग्रंथ-लेखक का सादर सस्नेह अभिवादन !
-श्री चन्द्रप्रभ
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