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________________ जब नदी सागर की ओर यात्रा रोक देगी, तो वह डबरा बन जाएगी, गंदे पानी का तालाब बन जाएगी। उसके अस्तित्व की पहचान ही यही है कि नदी वह जो सागर में विलीन हो जाए। जो मनुष्य अपनी भावनाओं को सागर जैसी विराटता का रूप दे देता है वही अस्तित्व से कुछ उपलब्ध कर पाता है। जब तक बीज टूटेगा नहीं, कली उसमें से बाहर नहीं निकल पाएगी। हर बीज में वृक्ष होने की संभावना है, बशर्ते वह टूटने को, मिटने को तैयार हो। अन्यथा बीज के साथ ही सब संभावनाएँ नष्ट हो जाएँगी। बहधा ऐसा होता है कि अनेकों बीज अपनी संभावनाओं के साथ ही समाप्त हो जाते हैं। ____ एक बीज को काँच की शीशी में बंद करके रख दो और एक को मिट्टी में दबा दो। उसे खाद-पानी देना शुरू कर दो। समय के गुजरने के साथ उसका परिणाम देखो। जो बीज शीशी में बंद था वह सूख गया, उसकी संभावनाएँ भी समाप्त हो गईं और जो अंकरित होने को, मिटने को तैयार हो गया वह पौधा, पौधे से झाड,झाड़ से विशाल वृक्ष बनकर खड़ा हो गया। जब तक स्वयं का बीज फूटेगा नहीं, कभी अंकुरित नहीं हो पाएगा। हमारे साथ प्रायः यही होता है कि हमारा बीज हमारे साथ बंद ही वापस चला जाता है। चेतना के उस बीज का इस लोक में कोई रूपान्तरण या उपयोग नहीं हो पाता। हम बीज हैं, चेतना के बीज । जरूरत है उसके अंकुरण की, ऊर्ध्वारोहन की। __ अपनी दृष्टि को विराटता दो 'घट-घट नूर ब्रह्म को धाम' । जिसने बूंद में पा लिया उसने सागरों में पा लिया। जिसने उसकी विराटता को पहचान लिया फिर मनुष्य में ही नहीं वृक्षों, पत्तों और चट्टानों में भी वही दिखाई देगा। तलाश करो उस परम तत्त्व की अपने में ही; जो उसे बाहर खोजने निकलेगा चूकता रहेगा। बाहर में भी अनुभूति वही कर पायेगा जिसने भीतर में अनुभूति कर ली है। जिसे मधु की मिठास का अनुभव है वही व्यक्ति किसी दूसरे को मधु पीते देख अनुभव कर सकेगा कि इसे कैसा स्वाद आ रहा है। तुम्हें प्यास लगी, जल पी लिया, फिर जब कोई दूसरा प्यासा पानी पीयेगा तो तुम अनुभव कर सकोगे कि प्यासे को पानी पीने में कितनी सुखद अनुभूति हो रही है। जब तक अपने भीतर पहचान न बन पायी, तब तक दूसरे को देखकर कुछ भी पहचान नहीं कर पाओगे। तो मैं एक बार फिर से दोहरा हूँ कि ब्रह्म से साक्षात्कार वे ही लोग कर पाएँगे जो सारे जहाँ में ढूँढ़कर अब चुप बैठ गये हैं। इस दुनिया में सब कुछ दौड़ने से, परिश्रम करने से मिला है पर परमात्मा.....! वह तो रुकने से ही मिल पाएगा। उसे तो मौन में, निजत्व में, चित्त की शांत अवस्था में ही पा सकोगे। 62 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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