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________________ जब व्यक्ति अपनी दृष्टि को विराटता दे देता है, अस्तित्व के हर भाग में प्रभुता निहारना शुरू कर देता है तब डाल-डाल, पात-पात चिड़ियों की चहचहाट में, फल-फूल में, कण-कण में परमात्मा का ही अस्तित्व दिखाई देने लगता है। परमात्मा की आभा स्वतः ही चारों ओर मँडराने लगती है। जरूरत इस बात की है कि मनुष्य अस्तित्व के हर कोण में प्रभुता को निहारने की कोशिश करे । तुम परमात्मा की प्रतिमा पर तो दूध का अभिषेक कर सकते हो, लेकिन किसी भूखे प्राणी को दो रोटी खिलाने से कतराओगे। भगवान की मूर्ति पर सोने के कलश से दूध चढ़ा दोगे पर किसी प्यासे को पानी पिलाने के लिए प्याऊ खोलने का इंतजाम नहीं करोगे। हमारी दृष्टि, हमारी कामनाएँ, भीतर की भावनाएँ इतनी संकुचित हो गई हैं, इतनी परम्पराग्रस्त हो गई हैं कि हमने परमात्मा का संबंध सिर्फ प्रतिमा से जोड़ दिया है। निश्चित रूप से मंदिर का परमात्मा हमारी आराधना का केंद्र है, पूजा-प्रार्थना का आधार-स्थल है लेकिन अपनी प्रभुता को विराटता का रूप दो। अपनी दृष्टि को विस्तार दो। जब हम एक प्रतिमा को परमात्मा मान सकते हैं तो किसी जीवित प्राणी को परमात्मा क्यों नहीं मान सकते। इस जीवित प्रतिमा से ही कभी महावीर, बुद्ध, कृष्ण, ईसा, सुकरात, राम प्रकट हुए। आखिर सभी तीर्थंकर, पैगम्बर, अवतार इस मनुष्य की प्रतिमा से ही साकार हुए हैं। हमें अपनी प्रभुता की भावना का विस्तार करना है। जब हम किसी बगीचे से गुजरते हैं और वहाँ फूल तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाते हैं तो रुकिए और स्वयं में इस भाव को प्रवेश करने दीजिए कि इस पुष्प में भी परमात्मा की छवि है। इस भाव के आने से आप कभी निरर्थक फूल नहीं तोड़ पाएँगे। आपको लगेगा कि आप फूल तोड़कर परमात्मा के किसी एक रूप को कष्ट पहुँचा रहे हैं । जब किसी दीन-दुःखी को प्रताड़ित करते हैं, तो यह भाव पैदा कीजिए कि इसमें भी परमात्मा है। किसी को दगा देते हो, धोखेबाजी करते हो, किसी भी प्रकार की तकलीफ देते हो तब अन्तस में यह भाव लाइए कि इसके अन्दर भी परमात्मा की आभा है, उसी का अस्तित्व है। ___ मंदिर में भी एक परमात्मा है और यह दूसरा परमात्मा है। हमारी प्रवृत्ति ऐसी हो गई है कि एक परमात्मा की तो दूध, पुष्प, केसर-चंदन से पूजा करते हैं और दूसरे को धोखा देते हैं, नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। अपनी दृष्टि को विराट बनाओ। यदि दृष्टि को विराट न किया तो जो नदी सागर में जाने से घबराती है वह विराट नहीं हो पाएगी। याद रखो, नदी सागर में जाकर खोती नहीं विराट हो जाती है। जो व्यक्ति सागर की ओर अपने कदम बढ़ा देता है, अपना अहं खोने को तैयार है, वही जीवन में सागर की उपलब्धि कर सकता है। जो अपने को मिटाने को तत्पर है, उसी की तकदीर में उपलब्धियाँ है। 61 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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