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________________ हो गए थे। यहाँ उन्होंने देखा कि कुण्डलिनी-जागरण की प्रक्रिया में साधक चैतन्य-देह हो रहे थे। कोई कुछ कर रहा था, कोई कुछ, गजब का समां था- जैसे इस कक्ष का अस्तित्व ही आप्लावित हो गया हो। वे सज्जन भी यहाँ मौजूद थे तो उन्हें ख्याल आया कि ये सब व्यक्ति जो इतना ऊधम (हँसी) मचा रहे हैं, गुरुजी के ही सिखाएपढ़ाए हैं। किसी की चेतना के जागरण पर तुम्हारे मन में जो नाटकीयता के भाव जाग्रत हुए यही तुम्हारा अन्तराय है । जहाँ चेतना जीवन्त होती है, उसे तुम पहचान ही नहीं पाते और नाटकों की संज्ञा देकर स्वयं भी वंचित रह जाते हो। __ अब वे सज्जन आँखों में अश्रु भरकर खड़ हैं। कह रहे हैं- मैंने तो समझा ये आप ही के प्रशिक्षित लोग हैं। लेकिन उनके मन में विचार आया कि इसकी परीक्षा करनी चाहिए। उन्होंने चार-पाँच अन्य डॉक्टरों से विचार-विमर्श किया और उन्हें भी ध्यान-शिविर में ले आए। लेकिन उन्हें गहरा आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने उन डॉक्टरों को भी यहाँ चैतन्य हए पाया। पहले के लोग तो प्रशिक्षित हो सकते थे लेकिन डॉक्टर, ये तो पहली बार ही यहाँ आए हैं और अभी तो महाराज से मिले भी नहीं हैं। वे सज्जन उन डॉक्टरों के घर गए और पूछा- तुम लोगों ने गुरुजी से क्या पाया? तुम लोग अद्भुत अनूठे क्यों लग रहे थे? ये आँसू,ये पुकार-तड़फन,ये सब कहाँ से आ गए? उन डॉक्टरों ने कहा, 'हमें भी पता नहीं लगा, ये आँसू कहाँ से आए, कहाँ से आनन्द की अनुभूति हुई, कैसे हाथ-पाँव योगमय हो गये, हमें कुछ पता नहीं लगा। हमें कोई संकेत भी नहीं मिला। और वे वृद्ध डॉक्टर कहने लगे, 'गुरुश्री! आप विश्वास नहीं करेंगे तीसरे दिन वह 'नाटक' मुझमें घटित होने लगा। दूसरों में घटित होने वाली जिस चेतन-धारा को मैंने नाटक समझ लिया था, वह मुझमें उतरने लगी। मैं स्वयं को संभाल न पाया और तब मझे प्रतीति हई कि यह नाटक नहीं। यह ध्यान की सघनता है । ऊर्जा की सघनता है। सिर्फ गहराई में जाने की आवश्यकता है। ____ व्यक्ति जब ध्यान के द्वारा अपनी ऊर्जा को सघनता प्रदान करता है, विराटता देता है, तब जीवन में परम धारा, परम-दशा और परम आनन्द की अनुभूति होती है। जब भी जीवन में इस परम अनुभूति की वेला आएगी, शरीर में मानो चेतना का विस्फोट होगा, क्योंकि उस क्षण में आत्मा अनन्त आकाश की ओर उठने का प्रयास करेगी। ध्यान में इसकी जीवंत अनुभूति होती है। विदेहानुभूति ही तो ध्यान है। ___ ध्यान देह में, विदेह की साधना है। कुछ साधक ध्यान की त्वरा को तत्काल उपलब्ध हो जाते हैं, तो कइयों को वक्त लगता है। आचार्य हरिभद्र ने साधना के मार्ग 153 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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