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________________ सकता है। सागर में तो बूंद जाती ही है, वह तो इतना विराट है कि सभी बूंदों को अपने में समा सकता है, लेकिन बूंद में समुद्र समा जाए, वही ध्यान का अवढ़र दान है। ध्यान के द्वारा तुम अपने अस्तित्व को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फैला देते हो। उपनिषद कहते हैं- ‘एकोऽहं बहुस्याम' मैं एक हूँ, बहुत में बँट जाऊँगा- बहुत में फैल जाऊँगा। तब तुम्हारे अंदर की एक बूंद में सारी सृष्टि, सारा ब्रह्माण्ड समाविष्ट हो जाएगा। समुद्र समाना बूंद में'- अगर अपनी बूंद को इतनी विराटता नहीं दे पाओगे तो उस निराकार परमात्मा को जिसे कोई बूंद मत समझो, सागर की जितनी विराटता है, उससे अनन्त गुनी विराटता उस परमात्म तत्त्व की है। उसे तुम अपने भीतर कैसे समाविष्ट करोगे? हमें अपनी बूंद को सागर की क्षमता में बदल लेना है, तभी उस पर ज्योति से, जो सृष्टि के आदि से अंत तक विद्यमान है, तदाकार हो पाओगे। हमारे मार्ग में अनंत रुकावटें आ सकती हैं फिर भी ध्यान के मार्ग से विचलित मत होना। यह विचलन हमें हमारी अपार संभावनाओं से भी चुका देगा। हम जो हो सकते हैं, हम जिसे पा सकते हैं, हमारा भय हमें उन सबसे दूर फेंक देगा। तुम्हारे आस-पास किसी की चीख उठी, तुम काँप पाए। किसी की आवाज ने तुम्हारे मन में संदेह भर दिया, 'मैं कौन हूँ' की ध्वनि ने तुम्हारे अन्दर विचारों का बवंडर उठा दिया। कहीं से आवाज आई 'अहं गच्छामि' तो दूसरे संवेग जागने लगेउस समय तुम्हारे भीतर की यह संभावना थी कि तुम भी इसी तत्त्व को प्रकट करते कि 'अहं गच्छामि'- मैं उस परमतत्त्व के नजदीक जा रहा हूँ लेकिन तुमने उसे मनोरंजन तक सीमित रख दिया। यदि तुम चाहते तो आस-पास ध्यान की आविर्भूत हुई ज्योति को ध्यान की सघनता में अपने भीतर समाहित कर सकते थे। लेकिन तुम ऐसा नहीं कर पाए । बस, इधर-उधर झाँकते भर रह गए। मुझे याद आ रहा है पिछली बार जब ध्यान-शिविर लगा हुआ था, वह शायद चौथा दिन था, एक सत्तर वर्षीय वृद्ध मेरे पास आए और क्षमा माँगने लगे। उनकी आँखों में अश्रु थे और बार-बार क्षमा याचना कर रहे थे। मैंने कहा- क्षमा, कैसी क्षमा, किस बात की क्षमा ! आप तो उम्र में मेरे पिता समान हैं- फिर मैं तो परिचित भी नहीं हूँ कि आपसे क्या भूल हो गई है। कहने लगे- मुझे अपने जीवन के प्रति अपराध-बोध हो रहा है। विगत दिनों में मेरे मन में ध्यान को लेकर जो गलत विचार पैदा हुए, उनके प्रति आज मेरे मन में अपराध-बोध है- उसी के कारण आँखों में आँसू और हृदय में पश्चाताप है। बताने लगे कि वे एक डॉक्टर हैं। धर्म और अध्यात्म में उनकी कोई रुचि नहीं थी, लेकिन किसी के कहने पर ध्यान-शिविर में सम्मिलित 52 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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