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________________ पर्युषण पर्व आता है, जैन लोग कल्पसूत्र का श्रवण करते हैं। लाखों के चढ़ावे लिये जाते हैं, बोलियाँ बोली जाती हैं, शोभायात्राएँ निकाली जाती हैं, उसकी पूजा की जाती है और जन्मवाचन के समय तो देश भर में करोड़ों के चढ़ावे होते होंगे। यह सब हो, भले ही हो लेकिन इस बात का चिंतन अवश्य किया जाना चाहिए कि क्या ऐसे कर लेने मात्र से कल्पसूत्र हमारे जीवन का काया-कल्प कर पायेगा? ग्रंथ को सिर पर लेकर तो तुमने शोभायात्राएँ निकाल लीं, शहर भर में घूमकर आ गये पर इसके बावजूद यह प्रश्न तो खड़ा ही रहा कि सिर पर धारण करने वाले व्यक्ति ने उसे हृदय में भी धारण किया है या नहीं? हमने अब तक पचीसों-पचासों दफा कल्पसूत्र का श्रवण कर लिया है, पर मुझे नहीं लगता कि हमने उसे सुनने की दृष्टि से सुना हो, महज एक परंपरा को निभाने के लिए सुन भर लेते हैं। जीवन का कायाकल्प करने के लिए हमने कब सुना है इन पवित्र ग्रंथों को, इन पवित्र किताबों को। आप कल्पसूत्र में कई दफा सुन चुके कि महावीर के कानों में कीलें ठोकी गईं और वे समता में जीते रहे,शांत-समाधिस्थ बने रहे । उनके कानों में तो कीलें ठोकी गईं, फिर भी शांत और यहाँ कोई दो कड़वे शब्द सुना दे तो आप आग-बबूला हो जाएँगे। धर्म की शुरुआत, अध्यात्म का आरम्भ जीवन से होना चाहिए। अगर अध्यात्म की शुरुआत जीवन से होती है, अपने अन्तर-अस्तित्व से होती है, हमारा जीवन आत्मोत्कर्ष के अमृत में भीग जाता है तो जीवन में आनन्द और धन्यता का अनुभव किया जा सकता है, कैवल्य-मुक्ति को जीया जा सकता है, चेतना का अंतिम स्पर्श किया जा सकता है। यह ध्यान-शिविर चेतना के अंतिम स्तर पर स्पर्श करने का आयोजन है। ध्यान हमें न केवल ग्रंथियों से मुक्त करेगा, अपितु किसी हद तक ग्रंथमोह से भी उपरत करके हमारी भगवत्ता को हमें उपलब्ध कराएगा। जब नगर में समाचार-पत्रों के माध्यम से अथवा अन्य प्रचार माध्यमों से लोगों को सूचना मिली कि यहाँ ध्यान-शिविर हो रहा है, तो लोगों ने शिविर का अर्थ निकाला कि यहाँ कोई ध्यान की प्रतियोगिता होगी, पारितोषिक दिये जाएँगे। धर्म में भी प्रतिस्पर्धााएँ जारी हो गई हैं। अब पहले किसी ने ध्यान के नाम पर कोई प्रतियोगिता कराई होगी कि एक घंटे के लिए ध्यान करो, आँखें खुलनी नहीं चाहिए, शरीर हिलना नहीं चाहिए तो तुम्हें पुरस्कार मिलेगा। अगर थोड़ा-सा भी शरीर हिल गया, एक क्षण के लिए भी पलकें ऊपर उठ गईं, तो पुरस्कार हाथ से निकल गया। निर्णायकों को इसकी कोई परवाह नहीं है कि इस एक घंटे में हमारा मन कितना उछल-कूद करता रहा, चित्त में कितने उद्वेग और संवेग जन्मे, बस उनकी शर्त तो यह है कि आँख न खुले, शरीर न हिले, मन भले ही उछल-कूद करे। अब भला इन प्रतिस्पर्धाओं का ध्यान से क्या ताल्लुक । मैं तो कहूँगा कि अगर ध्यान में शरीर हिल | 41 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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