SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्यथा ध्यान रखना, ये बाहर के मनोरंजन के साधन हमारे दुःख को कुछ क्षण के लिये हल्का कर देंगे, समाप्त नहीं कर पायेंगे। अफीम का नशा आखिर कब तक टिकेगा। जिंदगी में बहुत लोरियाँ गा चुके हो, सान्त्वना दे चुके हो। भले ही कुछ क्षण के लिए तुम्हें राहत महसूस हो जाये, लेकिन समस्या वैसी की वैसी खड़ी रहेगी, ऐसी समस्या नहीं मिटेगी। समस्या मिटेगी स्वयं में डूबने से। ध्यान और समाधि से। अगर दुःखों से मुक्ति पाना चाहते हो, तो मन से छूटो, चित्त से छूटो, तो दुःख अपने आप छूट जायेगा। सारी समस्याएँ स्वतः समाप्त हो जायेंगी। मेरी नज़र में यही जीवन का संन्यास है, मुनित्व है। जो अ-मन हो गया, वही तो मुनि है । साक्षी बनो अपने मन के। पराजय वहीं है, जहाँ विजय है। इसी मन में सुख है और इसी मन में दुःख है। हँसी और आँसू दोनों इसी मन में हैं। अगर इस शिविर में हमने किंचित् भी अ-मन दशा उपलब्ध कर ली, तो आँसू और मुस्कराहट दोनों के साक्षी बन सकोगे। फिर धर्म, केवल ऊपर की लीपा-पोती नहीं, चेतना से जुड़ जायेगा। और अगर इस साक्षी-भाव में थिर हो गये, रम गये, तो जीवन रस रूप बन जायेगा।अभूतपूर्व, अनूठा, अतिशयपूर्ण। जो अन्तर का स्पर्श करना चाहते हैं, चेतना की पहचान करना चाहते हैं उनके लिए आवश्यक है कि वे साक्षी-भाव, दृष्टा-भाव में जीने का प्रयास करें। फिर न अतीत की स्मृतियाँ रह पायेंगी, न भविष्य की कल्पनाएँ। बस वर्तमान रहेगा। वह भी देहातीत, मनोमुक्त। ऐसी दशा में भले ही कोई सूली पर लटकाए, कानों में कीलें ठोके, जहर का प्याला पिलाये फिर भी चेतना उससे प्रभावित नहीं होगी, वह तो अस्पर्शित ही रहेगी। महावीर के कानों में कीलें ठोकी गईं, क्या उन्हें सन्त्रास नहीं हुआ? वे साक्षीभाव में थे। सुकरात को जहर का प्याला पिलाया गया, उन्होंने साक्षी-भाव में मृत्यु का वरण किया। जिन्होंने सुकरात की मृत्यु को देखा है उन्होंने लिखा है कि इस संसार में जिसने होशपूर्वक मृत्यु को पाया है वह सुकरात है। कहते हैं सुकरात के लिए जहर का प्याला तैयार किया जा रहा था। एक सैनिक जहर घोट रहा था। आदेश था सूर्यास्त के पूर्व ही उसे जहर पिला दिया जाए। दोपहर ढल रही थी। साँझ होने के करीब थी। सुकरात ने सैनिक से कहा, इतना विलम्ब क्यों कर रहे हो। जरा शीघ्रता से घोटो। सैनिक दंग रह गया कि सुकरात क्या कह रहा है। अरे, मैं तो जान-बूझकर ही धीरे काम कर रहा हूँ ताकि सुकरात कुछ और जिंदगी जी ले। सुकरात जैसे प्रकाश, सुकरात जैसे सत्य, इसके जैसी आभा तो धरती पर विरल ही अवतरित होती है। और मैं खुद ही विलम्ब कर रहा हूँ ताकि इस सत्य का प्रकाश 37 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy